मैं नहीं सिखा पाऊँगी अपनी बेटी को बर्दाश्त करना एक ऐसे आदमी को जो उसका सम्मान न कर सके।
कैसे सिखाए कोई माँ अपनी फूल सी बच्ची को कि पति की मार खाना सौभाग्य की बात है?
मैंने तो सिखाया है कोई एक मारे तो तुम चार मारो।
हाँ, मैं बेटी का घर बिगाड़ने वाली बुरी माँ हूँ, .........
लेकिन नहीं देख पाऊँगी उसको दहेज के लिए बेगुनाह सा लालच की आग में जलते हुए।
मैं विदा कर के भूल नहीं पाऊँगी, अक्सर उसका कुशल पूछने आऊँगी। हर अच्छी-बुरी नज़र से, ब्याह के बाद भी उसको बचाऊँगी।
बिटिया को मैं विरोध करना सिखाऊँगी।
ग़लत मतलब ग़लत होता है, यही बताऊँगी। देवर हो, जेठ हो, या नंदोई, पाक नज़र से देखेगा तभी तक होगा भाई।
ग़लत नज़र को नोचना सिखाऊँगी, ढाल बनकर उसकी ब्याह के बाद भी खड़ी हो जाऊँगी।
“डोली चढ़कर जाना और अर्थी पर आना”, ऐसे कठिन शब्दों के जाल में उसको नहीं फसाऊँगी।
बिटिया मेरी पराया धन नहीं, कोई सामान नहीं जिसे गैरों को सौंप कर गंगा नहाऊँगी।
अनमोल है वो अनमोल ही रहेगी।
रुपए-पैसों से जहाँ इज़्ज़त मिले ऐसे घर में मैं अपनी बेटी नहीं ब्याहुँगी।
औरत होना कोई अपराध नहीं, खुल कर साँस लेना मैं अपनी बेटी को सिखाऊँगी।
मैं अपनी बेटी को अजनबी नहीं बना पाऊँगी।
हर दुःख-दर्द में उसका साथ निभाऊँगी,
ज़्यादा से ज़्यादा एक बुरी माँ ही तो कहलाऊँगी।