मंदिर -
जब हम सनातन धर्म को देखते है। तब हमारी सारी दृष्टि वर्तमान पर रहती है। इससे कोई भी समीक्षा बहुत सतही हो जाती है।
लेकिन सनातन धर्म एक यात्रा है।
वैदिक युग आज के हजारों वर्ष पूर्व शुरू होता है। जब मनुष्य पहली बार चिंतन किया था।
वेद आये।
वेद , दर्शन और कर्मकांड में यज्ञ को महत्व देते थे। एक ब्रह्म है एक प्रकृति है सब उसी का विस्तार है।
लेकिन जब सनातन धर्म तेजी से अंगीकार होने लगा तो इसकी आवश्यकता समझ में आने लगी कि कैसे, समाज में जीवन मूल्य और धर्म बना रहे और समाज संगठित रहे।
यही से मंदिरों की संकल्पना आई। जो धर्म और संस्कृति का केंद्र बनकर उभरे।
सनातन धर्म के लिये मंदिर इतने महत्वपूर्ण बन गये कि इन्हीं मंदिरों ने इस धर्म को सुशोभित कर दिया।
यह मंदिर देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा के साथ बनते थे। यह देवताओं के स्थान ही नहीं , उत्सव संस्कृति शिक्षा के केंद्र बने।
मंदिरों के साथ धर्म का एक मूल्य जोड़ा गया -
"मंदिर वह है जँहा प्राणप्रतिष्ठा हो ! यदि मंदिर किसी कारण से तोड़ दिया गया। फिर भी वह मंदिर ही रहेगा। "
यह तर्क राममंदिर निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने और अभी ज्ञानवापी में वाराणसी कोर्ट ने स्वीकार किया है।
मंदिर सैदव , मंदिर रहेंगें यदि उनकी प्राण प्रतिष्ठा हुई है।
इस तरह यदि देखें तो सभी मंदिर, अभी मंदिर है जो तोड़ दिये गये है।
मंदिर के विस्तार में राजवंशों का योगदान सबसे अधिक है। उन्होंने अपने वैभव और प्रतिष्ठा के रूप में भी महान मंदिरों का निर्माण कराया।
मिथिला के राजा जनक, जो विदेह परंपरा के राजा था। उनकी राज्यसभा का ही निर्णय था मंदिर के साथ गुरुकुलों के निर्माण हो।
जनक ही भारत के सभी मंदिरों के कुलाधिपति थे। भगवान राम के समय विश्वामित्र ऋषि के पास 2000 ,गौतम ऋषि के पास 1200 गुरुकुल और भरद्वाज ऋषि के पास 800 गुरुकुल का वर्णन है।