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"महान क्रांतिकारी टंट्या मामा भील का नाम सुन कर कांप जाते थे अंग्रेज"
अंग्रेज गरीबों पर जुल्म ढाते, अत्याचार करते, महीनों की मजदूरी के बदले कौड़ो से पीटते. उनकी हैवानियत यही नहीं रुकती.. वो मजदूरों को रोटी जगह उनके जख़्मों पर नमक रगड़ते। कुछ काले अंग्रेज (भारतीय) भी उनका इस कुकृत्य में साथ दे रहे थे. ये अन्याय टंट्या मामा को मंजूर नहीं था. ये एक अकेला क्रांतिकारी ब्रिटिशों की नींद उड़ाने के लिए काफी था.
टंट्या मामा की दांस्ता आत्मप्रेरणा से प्रेरित महान क्रान्तिकारी की गौरव गाथा है उस समय हिंदुस्तानियों के खून पसीने की कमाई को अंग्रेज रेलगाड़ियों में भर कर इंगलिस्तान ले जाते थे, लेकिन ट्रेन पातालपानी (महू) के जंगलों को पार नहीं कर पाती.
टंट्या मामा बिजली की तरह प्रकट होते और लूट का सारा पैसा लेकर अंतर्ध्यान हो जाते. ये पैसा जरूरतमन्दों और गरीबों में बांट दिया जाता.
स्थानीय लोकभाषा में आज भी गीतों में उल्लेख आता है कि कैसे टंट्या मामा बेटियों की शादी के लिए, बीमारों को उपचार हेतु भोजन,कपड़े और मकान हेतु वो सारा पैसा भेंट कर देते थे। अपनी जान दाँव पे लगा कर, अपनोंं की सेवा करने का इससे बेहतरीन उदाहरण दूसरा नहीं मिलता.
आज की ही तारीख 4 दिसम्बर 1889 को जबलपुर सेंट्रल जेल में टंट्या मामा को फांसी दे दी थी. लेकिन टंट्या मामा को मार पाए वो फांसी का तख्ता आज तक बना नहीं, आज भी टंट्या मामा हमारे दिलों में जिंदा है.

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