2 yrs - Translate

#श्रीमद्भगवद्गीता
साधक संजीवनी
(स्वामी रामसुखदासजी)
अध्याय : १ | श्लोक : १
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥ १॥
हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें इकट्ठे हुए युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने भी क्या किया ?
सञ्जय = हे संजय!
धर्मक्षेत्रे = धर्मभूमि
कुरुक्षेत्रे = कुरुक्षेत्रमें
समवेता: = इकट्ठे हुए
युयुत्सव: = युद्धकी इच्छावाले
मामका: = मेरे
च = और
पाण्डवा: = पाण्डुके पुत्रोंने
एव = भी
किम् = क्या
अकुर्वत = किया ?
'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’—कुरुक्षेत्रमें देवताओंने यज्ञ किया था। राजा कुरुने भी यहाँ तपस्या की थी। यज्ञादि धर्ममय कार्य होनेसे तथा राजा कुरुकी तपस्याभूमि होनेसे इसको धर्मभूमि कुरुक्षेत्र कहा गया है।
यहाँ 'धर्मक्षेत्रे’ और 'कुरुक्षेत्रे’ पदोंमें 'क्षेत्र’ शब्द देनेमें धृतराष्ट्रका अभिप्राय है कि यह अपनी कुरुवंशियोंकी भूमि है। यह केवल लड़ाईकी भूमि ही नहीं है, प्रत्युत तीर्थभूमि भी है, जिसमें प्राणी जीते-जी पवित्र कर्म करके अपना कल्याण कर सकते हैं। इस तरह लौकिक और पारलौकिक सब तरहका लाभ हो जाय—ऐसा विचार करके एवं श्रेष्ठ पुरुषोंकी सम्मति लेकर ही युद्धके लिये यह भूमि चुनी गयी है।
संसारमें प्राय: तीन बातोंको लेकर लड़ाई होती है—भूमि, धन और स्त्री। इन तीनोंमें भी राजाओंका आपसमें लडऩा मुख्यत: जमीनको लेकर होता है। यहाँ 'कुरुक्षेत्रे’ पद देनेका तात्पर्य भी जमीनको लेकर लडऩेमें है। कुरुवंशमें
धृतराष्ट्र और पाण्डुके पुत्र सब एक हो जाते हैं। कुरुवंशी होनेसे दोनोंका कुरुक्षेत्रमें अर्थात् राजा कुरुकी जमीनपर समान हक लगता है। इसलिये (कौरवोंद्वारा पाण्डवोंको उनकी जमीन न देनेके कारण) दोनों जमीनके लिये लड़ाई करने आये हुए हैं।
यद्यपि अपनी भूमि होनेके कारण दोनोंके लिये 'कुरुक्षेत्रे’ पद देना युक्तिसंगत, न्यायसंगत है, तथापि हमारी सनातन वैदिक संस्कृति ऐसी विलक्षण है कि कोई भी कार्य करना होता है तो वह धर्मको सामने रखकर ही होता है। युद्ध-जैसा कार्य भी धर्मभूमि—तीर्थभूमिमें ही करते हैं, जिससे युद्धमें मरनेवालोंका उद्धार हो जाय, कल्याण हो जाय। अत: यहाँ कुरुक्षेत्रके साथ 'धर्मक्षेत्रे’ पद आया है।
यहाँ आरम्भमें 'धर्म’ पदसे एक और बात भी मालूम होती है। अगर आरम्भके 'धर्म’ पदमेंसे 'धर् ’ लिया जाय और अठारहवें अध्यायके अन्तिम श्लोकके 'मम’ पदमेंसे 'म’ लिया जाय, तो 'धर्म’ शब्द बन जाता है। अत: सम्पूर्ण गीता धर्मके अन्तर्गत है, अर्थात् धर्मका पालन करनेसे गीताके सिद्धान्तोंका पालन हो जाता है और गीताके सिद्धान्तोंके अनुसार कर्तव्य-कर्म करनेसे धर्मका अनुष्ठान हो जाता है।
इन 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ पदोंसे सभी मनुष्योंको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि कोई भी काम करना हो तो वह धर्मको सामने रखकर ही करना चाहिये। प्रत्येक कार्य सबके हितकी दृष्टिसे ही करना चाहिये, केवल अपने सुख-आरामकी दृष्टिसे नहीं; और कर्तव्य-अकर्तव्यके विषयमें शास्त्रको सामने रखना चाहिये (गीता—सोलहवें अध्यायका चौबीसवाँ श्लोक)।
'समवेता युयुत्सव:’—राजाओंके द्वारा बार-बार सन्धिका प्रस्ताव रखनेपर भी दुर्योधनने सन्धि करना स्वीकार नहीं किया। इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्णके कहनेपर भी मेरे पुत्र दुर्योधनने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्धके मैं तीखी सूईकी नोक-जितनी जमीन भी पाण्डवोंको नहीं दूँगा। तब मजबूर होकर पाण्डवोंने भी युद्ध करना स्वीकार किया है। इस प्रकार मेरे पुत्र और पाण्डुपुत्र—दोनों ही सेनाओंके सहित युद्धकी इच्छासे इकट्ठे हुए हैं।
दोनों सेनाओंमें युद्धकी इच्छा रहनेपर भी दुर्योधनमें युद्धकी इच्छा विशेषरूपसे थी। उसका मुख्य उद्देश्य राज्य-प्राप्तिका ही था। वह राज्य-प्राप्ति धर्मसे हो चाहे अधर्मसे, न्यायसे हो चाहे अन्यायसे, विहित रीतिसे हो चाहे निषिद्ध रीतिसे, किसी भी तरहसे हमें राज्य मिलना चाहिये—ऐसा उसका भाव था। इसलिये विशेषरूपसे दुर्योधनका पक्ष ही युयुत्सु अर्थात् युद्धकी इच्छावाला था।
पाण्डवोंमें धर्मकी मुख्यता थी। उनका ऐसा भाव था कि हम चाहे जैसा जीवन-निर्वाह कर लेंगे, पर अपने धर्ममें बाधा नहीं आने देंगे, धर्मके विरुद्ध नहीं चलेंगे। इस बातको लेकर महाराज युधिष्ठिर युद्ध नहीं करना चाहते थे। परन्तु जिस माँकी आज्ञासे युधिष्ठिरने चारों भाइयोंसहित द्रौपदीसे विवाह किया था, उस माँकी आज्ञा होनेके कारण ही महाराज युधिष्ठिरकी युद्धमें प्रवृत्ति हुई थी२ अर्थात् केवल माँके आज्ञा-पालनरूप धर्मसे ही युधिष्ठिर युद्धकी इच्छावाले हुए हैं। तात्पर्य है कि दुर्योधन आदि तो राज्यको लेकर ही युयुत्सु थे, पर पाण्डव धर्मको लेकर ही युयुत्सु बने थे।
'मामका: पाण्डवाश्चैव’—पाण्डव धृतराष्ट्रको (अपने पिताके बड़े भाई होनेसे) पिताके समान समझते थे और उनकी आज्ञाका पालन करते थे। धृतराष्ट्रके द्वारा अनुचित आज्ञा देनेपर भी पाण्डव उचित-अनुचितका विचार न करके उनकी आज्ञाका पालन करते थे। अत: यहाँ 'मामका:’ पदके अन्तर्गत कौरव१ और पाण्डव दोनों आ जाते हैं। फिर भी 'पाण्डवा:’ पद अलग देनेका तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रका अपने पुत्रोंमें तथा पाण्डुपुत्रोंमें समान भाव नहीं था। उनमें पक्षपात था, अपने पुत्रोंके प्रति मोह था। वे दुर्योधन आदिको तो अपना मानते थे, पर पाण्डवोंको अपना नहीं मानते थे

image