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ये है कर्नाटक का मेलकोट गांव. राजधानी बेंगलुरु से 100 किमी दूर. यहां पिछले 200 सालों से दीवाली नहीं मनाई जाती और यहां के लोग अपने बेगुनाह पूर्वजों को यादकर आज भी सिसकते रहते हैं.
कारण दरबारी इतिहासकारों के जिगर के छल्ले, परम् प्रिय, दयालु और महान क्रांतिकारी टीपू सुलतान के महान करामात.
छोटी दीवाली के दिन ही कथित महान टीपू सुल्तान ने 800 ब्राह्मणों को फांसी पर चढ़ाना शुरू किया था और गांव में मौत का यह तांडव लगातार तीन दिन चला था. जिसमे महिलाएं, बूढ़े और बच्चे भी शामिल थे.
टीपू के सिपहसलारों ने पेड़ों पर टँगी लाशों में अपना मनोरंजन ढूढ निकाला और लगातार राक्षसी अट्टहास किया था.
स्थानीय लोगों का कहना है कि मुस्लिम शासक टीपू सुल्तान की वजह से ये गांव कभी दिवाली नहीं मनाता. इस परंपरा के माध्यम से ये गांव, टीपू सुल्तान और उसकी छवि के प्रति अपना विरोध जताता है.
दीपावली को अंधेरे पर प्रकाश की जीत का प्रतीक माना जाता है, लेकिन मांड्यम अयंगरों के लिए यह दिन हमेशा के लिए एक ऐसा दिन होता है, जब उन पर अंधेरा छा जाता है.
वही दूसरी ओर टीपू सुल्तान को हमारे देश का बुद्धजीवी वर्ग महान शासक मानता है और उसे क्रांतिकारी कहा जाता है. वर्षो से टीपू सुलतान के कृत्यों पर सफेद पेंट लगाने की कोशिश हो रही है.
लेकिन ऐसे लोगों को यहां के लोगों से बातचीत करना चाहिए और मैसूर का 1930 का गेज़ीटियर भी पढ़ना चाहिए, जिसमें टीपू सुल्तान के श्रीरंगपट्टनम के किले पर मौजूद एक शिलालेख का वर्णन है और वह काफिरों की मौत की कामना करता है.
इतिहास में कई और भी ऐसे प्रमाण मिलते हैं जिनमें टीपू सुल्तान ने हिन्दू मंदिरों को लूटा. जिहाद के नाम पर उन्हें क़त्ल किया. हजारों लोगों का बलपूर्वक धर्म परिवर्तन करवाया. ब्राह्मणों को उनके ब्राह्मण होने के अपराध में मारा और जिन्होंने मजहब नहीं स्वीकारा, उन्हें पेड़ों पर मारकर लटका दिया गया.
दक्षिण के इस औरंगजेब के बारे में अनेक ऐसे साक्ष्य मौजूद है जो बताते हैं कि यह मैसूर का शेर नहीं बल्कि मैसूर का भेड़िया था.

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