मैं कभी गाँव मे नहीं रही। मेरी एक बुआ गाँव मे रहती थी। और बचपन मे हम अक्सर 1 2 दिन के लिए उनके घर जाते थे। उस गांव के सबसे बड़े हवेलीनुमा मकान में वो रहती थीं। पर उनकी दिनचर्या और बाकी लोगों की दिनचर्या एक सी होती थी।
जब हम गांव के बारे में सुनते हैं तो हमारे लिए बड़ा चार्मिंग होता है वहां के बारे में सोचना और देखना... सुबह चिड़ियों की चहचहाहट में उठना, कुए के ताजे पानी से नहाना...गायों को चरते हुए देखना, उनको दुहते हुए देखना। घांस फुस के छप्पर में ठंडी हवा का लुत्फ उठाना। चूल्हे पर सिकती मोटी रोटी खाना।
पेड़ों की छांव के नीचे खटिया डालकर पसरे रहना। पेड़ों पर चढ़ना और गांवों की गलियों में घूमते रहना। कच्ची सड़को और मेड़ों को देखकर हमे बड़ी वाओ वाली फीलिंग आती है।
पर यह सब हम अपने लिए कब तक चाहते हैं? दो चार आठ दिन के लिए जब हम अपने महानगर के फुल्ली आटोमेटिक जीवन से बोर हो जाते हैं तो छुट्टियों के लिए 'फ़ॉर अ चेंज' के लिए हमे यह जीवन चाहिए।
क्योंकि हमें पता है आठ दिन के बाद हम फूल ac चलाकर अपने पक्के मकान में सोएंगे। जहां तमाम तरह की सुविधाएं हमारा इन्तज़ार कर रही होंगी।
पर जब गांवों में थोड़ी तरक्की हो जाती है। पक्के मकान बन जाते है। संकरी गलियों के बजाय पक्की सड़क बन जाती है। खाना चूल्हे के बजाय गैस पर बनने लगता है, घरों में गीजर लग जाते है, और दुकान खेत खलिहानों में आधुनिक तकनीक और उपकरणों का प्रयोग होने लगता है....सर पर पगड़ी बांधे, दुबला पतला धोती पहना हुआ किसान अचानक हमे कुर्ते पजामे या शर्ट पेंट में हाथ मे मोबाइल लिए इंटरनेट सर्फिंग करते हुए दिखता है तो हम बहुत बुरा महसूस करते हैं। हमें लगता है कि हमारे गांव अब पहले जैसे नहीं रहे। आधुनिकता की भेंट चढ़ गए और भी बहुत कुछ। क्योंकि हमारी कहानियों में किसान हमेशा दयनीय रहा है। भारत सपेरों का देश रहा है।
सत्य यही है कि, छुट्टियाँ बिताने के लिए हम असुविधा भी झेल लेते हैं। जैसे शहर में रहने वाली बहू जब गांव के ससुराल जाती है तो वहां पर रह रही बहू से कहीं ज्यादा आज्ञाकारी और नियम को मानने वाली होती है। ज्यादा बड़ा घूंघट भी काढेगी और 4 बजे से उठकर हर काम करेगी। क्योंकि उसे वहां चार दिन बिताने है। पर गांव वाली बहू को तो सारी जिंदगी वहां रहना है...उसे अपने अनुकूल थोड़ी आजादी और रहन सहन चाहिए ही।
बस यही महत्वपूर्ण अंतर है। हम आधुनिक बनकर कुछ जगह को पिछड़ा ही रहने देना चाहते हैं ताकि हम और हमारे बच्चे जब कभी वहां जाए तो वाओ की फीलिंग लेकर वापस अपने घर लौट आएं। पर उन लोगों का क्या जो वहां रहते हैं? क्या उन्हें सुविधाओं, स्वच्छता और सुरक्षा का हक नहीं? उन्हें भी बेहतर जीवन यापन का हक है।
पर भगतसिंह सबको चाहिए...लेकिन पड़ोस के घर मे।
आधुनिकता बुरी नहीं। सुविधाएं बुरी नहीं अगर वो परम्परा, संस्कृति और संस्कारों के दायरे में हों।
बाकी तो...आल इज वेल!