बचपन मे एक कहावत पढ़ी थी...अंधा बांटे रेवड़ी...मुड़ मुड़ अपने को दे!
उस समय यह कहावत बहुत कन्फ्यूज करती थी। लगता कि जो रेवड़ी हम सामने वाले ठेले से लाते वो तो बिन मुड़े ही रेवड़ी देता। और जब बड़ी मंमी हम सब बच्चों को एक लाइन में बैठाकर कागज़ के टुकड़ों पर मुट्ठी मुट्ठी रेवड़ी रखती...वो तब भी नहीं मुड़ती।
फिर ज्यादा होशियार दिमाग ने यह सोचा कि यह अंधों की बात है...बाकी लोगों के लिए नहीं।
हालांकि कालांतर में सड़ जी ने इस कहावत का असली मतलब भी बता ही दिया। खैर...
जिसने बचपन मे यह मुट्ठी भर तिल और गुड़ से सजी रेवड़ियाँ न खाई हो, उनका बचपन भी क्या बचपन होगा? ठंडी रातों में कभी जेबों में ठूसते तो कभी भाई बहनों के प्यार पर अपनी 2 4 रेवड़ियाँ कुर्बान कर के अपना प्यार पक्का करना हो या कभी कट्टी वाले दोस्तों से बट्टी करनी हो...रेवड़ियाँ सबसे बेस्ट हुआ करती थी। उस समय लगता था कि काश किसी दिन पूरा ठेला भर के रेवड़ी मिल जाए!
अब शहर बदला और आदतें बदली। और रेवड़ी का टेस्ट भी बदल गया। मुझे कभी रेवड़ी का वह टेस्ट न मिला जो बचपन मे खाया करते थे।
बचपन की यादें और रेवड़ी का स्वाद...सब कुछ मिसिंग मिसिंग है।
बाकी तो...