आज फिर उतनी ही सर्दी है, जब हाथ तेज़ी से ठंडे पानी के काम जल्दी जल्दी निपटाते हुए भी नीले पड़ जाते हैं। जब घी के बघार की धांस खिड़की से निकलकर दूर हवाओं में घुल जाती है। चूल्हे पर उतरती गर्म गर्म चपाती की सौंधी सी महक जैसे चाँद तक पहुँच जाती है, और वो चुपके से खिड़की में झाँकते हुए मुस्कराता है।
हाँ आज वैसी ही सर्दी है जब उठते ही मन होता है एक प्याली गुड़ वाली चाय का। वही गुड़ वाली चाय जो वादा है एक साथ पीने का। वो वादा चाहे कभी पूरा न हो, पर उस वादे के साथ का एहसास इस ठंडी की तरह ही शीतल है।
सोचते सोचते मैं जल्दी जल्दी चाय बनाने लगी। ढेर सारे झाग बनाते हुए जब चाय को कप में डाल रही थी तो गुड़ की भीनी सी खुशबू मुझे फिर वहीं ले गई, जहाँ पर बस हम तुम थे। ख्याल ही सही पर कितना खूबसूरत सा था न वो ख्याल!
इस बार गुड़ की चाय एकदम परफेक्ट बनी है, बिल्कुल वैसी जैसी तुम चाहते थे। तुम्हारे परफेक्शन भी अजीब थे तुम्हारी ही तरह।
मुझसे तुम्हे हर बात में परफेक्शन चाहिये, पर जब उस रात काम से थके हुए तुमने खुद से कोशिश की थी गुड़ की चाय बनाने की तो कैसे मायूस होकर कहा था;
'कैसे बना लेती हो तुम! मेरी चाय तो गुड़ डालते ही फट गई!'
और मैंने बेतहाशा हँसते हुआ कहा था;
मिस्टर परफेक्शनिस्ट...यह गुड़ की चाय है। जिसे बनाने के लिये सब्र चाहिये होता है, जो तुममे है ही नहीं।
तुमने कुछ जवाब न दिया, पर मैं फोन पर भी तुम्हारी गहरी सांस का कारण भांप गई थी और तुरन्त बात बदल दी थी। पर तुम उसके बाद खामोश ही रहे। मैं ही कुछ न कुछ बोलती रही। आज भी याद है मुझे तुमने फोन रखने से पहले यही कहा था बस;
जानती हो, तुममें सब्र बहुत है। यह तुम्हारी मजबूती है। तुम किसी भी लड़ाई को बिन लड़े बस अपनी सब्र भरी चुप्पी से जीत लेती हो...मैं जानता हूँ तुम्हारी तरह सब्र कभी नहीं आ सकता मुझे, इसलिए ही शायद गुड़ की चाय कभी नहीं बना पाऊंगा।
और मैं मन ही मन सोच रही थी, एक सब्र ही तो बचा है मेरे हिस्से। वह तो मेरे पास रहने दो।
देखो अब सब बदल गया है, नहीं बदला तो बस मेरा सब्र और यह गुड़ की चाय:-)