रामायण , महाभारत इतिहास के साथ धार्मिक ग्रँथ है।
गीता सर्वप्रिय ईश्वर कि वाणी है।
यह ग्रँथ भगवान राम, कृष्ण के चरित और निर्देशन पर लिखे गये है।
इसमें युद्ध है।
युद्ध का अर्थ राजनीति और कुटिनीति है।
भारत का वह कौन सा काल है। जब धर्म का हस्तक्षेप राजनीति में नहीं है।
धर्मविहीन राजनीति भ्र्ष्ट और दिशाहीन होती है।
लेकिन आधुनिक समय में राजनीति को सबसे निम्नतर बनाया गया है। उसके शुद्धिकरण के लिये यह तर्क दिया गया कि यह धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिये।
यह असंभव सी परिकल्पना को व्यवहारिक बनाकर, राजनीति को अधार्मिक किया गया है।
अधार्मिक होना, भारत जैसी प्राचीन संस्कृति के लिये अपमान जैसा है। जिसका पूरा जीवनकाल धर्म पर चला हो।
यह अवधारणा इसलिये स्थापित हो गई। क्योंकि हम इसका प्रतिवाद नहीं कर पाये कि
धर्म ! मजहब , रिलीजन नहीं है।
धर्म का उद्देश्य यह नहीं है कि कोई आसमान में बैठा उसके पास जाकर निर्णय लेना है।
धर्म ! जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्तित्व निर्माण कि प्रक्रिया है। ऐसा व्यक्तित्व जो सूक्ष्म जीव से लेकर असीमित प्रकृति कि रक्षा कर सके।
वह राजनीति जो इस राष्ट्र का भविष्य तय करती है। वह धर्महीन हो जायेगी तो इस राष्ट्र का भविष्य क्या होगा। जिसके परिवारिक, भ्र्ष्टतम स्वरूप से हम लोग परिचित है।
धर्म, वह नहीं है जिसे मार्क्स से अफीम कहा, न धर्म वह है जिससे सत्ता प्राप्त की जा रही है या गिराई जा रही है।
धर्मनिरपेक्ष होना निष्पक्ष होना नहीं है। यदि ऐसा होता तो आज इस देश में बहुमत में होते हुये हिंदू संघर्ष न कर रहे होते।
शंकरशरण ने अपने लेख में मंदिरों के टैक्स कि तुलना जजिया कर से किया था। लाखो करोड़ रुपये मंदिरों से टैक्स वसूले जाते है। लेकिन उन्हें अपने शिक्षा केन्द्र खोलने की अनुमति नहीं है।