जब छात्र थे तो इतिहास पर प्रश्न होने लगे तो मुझे लगा कि यह सब राजनीतिक प्रोपेगेंडा है।
वैसे भी जब तक स्वयं न अध्ययन कर ले तब तक विश्वास भी नहीं करते।
धीरे धीरे यह धुँआ छटा लेकिन भारतीय ऐकेडमिक व्यवस्था में आज भी आप घुस नहीं सकते है। जो भी लोग सोशल मीडिया के माध्यम से इतिहास को लिख रहे थे। उनको बुद्धजीवी वर्ग वाट्सएप यूनिवर्सिटी का इतिहास कहके परिहास करता है।
DU और JNU के प्रोफेसर पुष्पेश पंत को कल सुन रहा था। वह सैदव कांग्रेस के करीब रहे है। वामपंथी नहीं रहे , लेकिन उनके ही बीच उनका पूरा जीवन बिता है।
वह अपने साक्षात्कार में बता रहे थे किस तरह इंदिरा गाँधी कि अल्पसंख्यक सरकार को बचाने के लिये वामपंथियों से समर्थन के पारितोषिक के रूप में JNU को बनाया गया।
सैयद नुरुल हसन कि भूमिका प्रमुख थी। उनके नाना सज्जाद हसन मुस्लिम लीग के अध्यक्ष भी थे।
इस तरह से पूरा इतिहास दिल्ली केंद्रित और मुगलों तक सीमित किया गया। रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, रामशरण शर्मा जैसे इतिहासकारों को स्थापित किया गया।
लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि मार्क्सवादी इतिहासकारों से पढ़े छात्र विभिन्न यूनिवर्सिटी में गये, संघ लोक सेवा आयोग में गये।
उन्होंने संपूर्णता के साथ भारतीय इतिहास और शिक्षा व्यवस्था को बदल कर रख दिया।
भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद थे। उनकी ख्याति दक्षिण एशिया से लेकर अरब तक इस्लामिक स्कॉलर की थी। आप क्या उम्मीद रखते है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था क्या होगी।
जिस देश का विभाजन ही इस्लाम के नाम पर हुआ, उसके पहले ही नहीं आने वाले पाँच शिक्षा मंत्री मुस्लिम थे।
पुष्पेश पंत अध्ययनशील, भक्कड़ स्वभाव के लेखक, चिंतक रहे है। इमरजेंसी का समर्थन करके उन्होंने अपनी गरिमा बहुत गिरा दिया था। अध्ययन, अनुभव तो है ही। शुरू के आधे घँटे सुनने योग्य है।।
