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मेरी पुस्तक में एक अध्याय है, जिसका नाम है "पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा"... इसी अध्याय का एक अंश मैं यहां पोस्ट कर रहा हूं।
"आधी रात की नियति और दाग-दाग उजाला!"
दिल्ली, 15 अगस्त, 1947 की रात... दो सौ वर्ष की गुलामी के बाद भारत आजाद हो गया था। सेंट्रल हॉल में भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू की आवाज गूंजी, "कई सालों पहले, हमने नियति के साथ एक वादा किया था और अब समय आ गया है कि हम अपना वादा निभाएं। आधी रात के समय, जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता के लिए जाग जाएगा।" आधी रात में नेहरू जिस सुबह के सपने दिखा रहे थे, वह कुछ लोगों के लिए भयानक मंजर लेकर आने वाली थी।
अमृतसर, 15 अगस्त, 1947 की सुबह... रेलवे स्टेशन पर बेतहाशा भीड़ थी। लाहौर से आने वाली गाड़ी का समय हो गया था। प्लेटफॉर्म पर लोगों की भीड़ पाकिस्तान से आने वाले अपनों के इंतजार में खड़ी थी। ट्रेन की सीटी चीत्कार कर अपने आने का ऐलान कर रही थी। स्टेशन मास्टर छेनी सिंह भीड़ को चीरता हुआ प्लेटफॉर्म के कोने पर पहुंचा और लाल झंडी दिखाकर उसने ट्रेन को रुकने का इशारा किया। लोहे के पहियों के रगड़ने की कर्कश आवाज के साथ ट्रेन वहां रुक गई। छेनी सिंह ने एक अजीब-सा दृश्य देखा। ट्रेन के आठों डब्बों में कोई हलचल नहीं थी। एक भी यात्री नीचे नहीं उतरा, उतरता भी कैसे! उस गाड़ी में एक भी इंसान सही सलामत नहीं बचा था, बस लाशें भरकर आई थीं।
छेनी सिंह एक डब्बे के अंदर दाखिल हुआ, अंदर का दृश्य देखकर उसका जी मचल गया। सीटों और फर्श पर कटी-फटी, खून से सनी लाशें बिखरी पड़ीं थीं। किसी का गला कटकर अलग हो गया था, तो किसी के सीने पर खंजर के गहरे घाव थे। कुछ बच्चे जो जिंदा बच गए थे, वह अपनी मां के बेजान शरीरों पर उनके स्तन ढूंढ रहे थे लेकिन वह उन्हें मिलते कैसे, उन्हें तो काट दिया गया था।
अचानक छेनी सिंह को इन लाशों के बीच कुछ घुटती हुई आवाजें सुनाई दी। छेनी सिंह पूरी ताकत से चीखा, "डरो मत, अमृतसर आ गया है।" उसके शब्द सुनकर कुछ जिस्म जिंदगी पाने की उम्मीद में हल्के-हल्के हिलने लगे। यह देखकर छेनी सिंह घबरा गया, वह नीचे उतरा, उसने ट्रेन के डब्बे को ध्यान से देखा, उस पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था, ‘नेहरू और पटेल को हमारी तरफ से आजादी का तोहफा’
देश आजाद हो गया था और यह आजादी की पहली 'मुबारकबाद' थी। अगर उस सुबह वहां पड़ा कोई बेजान जिस्म बोल पाता तो वह चीख-चीखकर यही कहता, "ये देखो बापू... आपकी लाश पर तो नहीं, लेकिन मेरी लाश पर पाकिस्तान बन गया"। शायद इसी सुबह के लिए मशहूर शायर फैज ने लिखा था;
ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतिज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू ले कर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
(ये दागदार उजाला है, ये वह सुबह है जिसे रात ने 'टुकड़े' कर दिया है। हमें जिस सुबह का इंतजार था ये वह सुबह नहीं है। ये वह सुबह नहीं है, जिसे पाने की उम्मीद लेकर हम अपने इस सफर में चले थे।)
पुस्तक - हे राम: गांधी हत्याकांड की प्रामाणिक पड़ताल
लेखक – प्रखर श्रीवास्तव
पेज नंबर – 93

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