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मुझे बहुत सालों तक ऐसा लगता रहा कि जिससे घूंघट लेना होता है उसके चेहरे को नहीं देखना चाहिए...वो जो होता है ना घूंघट के पीछे से बड़ी-बड़ी आंखें फाड़कर सामने वाले को देखना !
मैं इस झंझट से मुक्त रही, बहुत समय तक...उन सारे रिश्तेदारों से जिनसे मुझे घूंघट लेना होता था मैं उनकी शक्लों से अनभिज्ञ ही रही... ज़रूरत ही नहीं लगी कि उन्हें ग़ौर से देख लूं...
फिर एक दिन अचानक एक व्यक्ति बिना पूर्व सूचना के घर आए, उन्हें मुझे चाबियां देनी थी शायद...
मैंने दरवाजा खोला
उन्हें हमेशा की तरह उम्मीद थी कि घूंघट वाली दरवाजा खोलेगी...
मैं ऐसे ही बिना घूंघट उनके सामने चली गई...
वो हिचकिचाए...
मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से उन्हें देखा...
कांपते हुए हाथों से उन्होंने मुझे चाबी दी...
फैक्ट्री की चाबियां लाया हूं
उन्होंने कहा...
मैंने चाबियां लेकर दरवाजा बंद कर दिया...
मुझे लगा फैक्ट्री में काम करने वाला कोई एम्प्लोई होगा...
बहुत महिनों बाद पता चला वे खत्री जी के बड़े भाई थे...
फिर घूंघट से तांक-झांक करना शुरू किया...कम से कम बिना खंखारे कोई आए तो घूंघट निकालने जितना परिचय तो हो...
अरे शक्ल अच्छे से देख लिया करो...
किसी ने कहा...
तो क्या घूंघट के भीतर से ताड़ना सही होगा ?
और क्या,पूरी दुनिया ताड़ती है भाई,तुम कौन खेत की मूली हो...
***
चलो तो फिर ताड़ते हैं 🫣🫣

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