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परसों रात प्यारे दोस्त और छोटे भाई डॉ. स्तिंदर
सरताज ने अपनी हालिया फ़िल्म 'शायर' देखने के लिये न्यौता दिया! वे
शायर, संगीतकार और गायक के तौर पर जितने मक़बूल हैं, अभिनेता
भी उससे कम नहीं हैं। उनके बहाने बहुत दिन बाद कोई पंजाबी फ़िल्म
देखी। ख़ुब मज़ा आया।
एक अल्हड़ से लड़के का मुहब्बत में ड्बना, समाज की रवायतों की
वजह से इश्क्र में शिकस्त खाना, फिर उसी दर्द की पूंजी से मुक़रम्मल
शायर हो जाना - यह इस फ़िल्म की थीम है। जैसे वाल्मीकि क्रौंच पक्षी
का विरह देरख उसी व्याकुल क्षण में संसार के पहले कवि हुए थे, वैसे ही
इस फ़िल्म का नायक अपनी प्रेमिका के बिछोह में शायर हो उठा है।
कुछ-कुछ हिंदी के छायावाद जैसा भाव कि - वियोगी होगा पहला
कवि, आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप, बही
होगी कविता अनजान या फिर कवि नागार्जून का मेघदूत के सर्जक
कालिदास पर संदेह करना कि - 'कालिदास सच-सच बतलाना, रोया
यक्ष कि तुम रोए थे? सार यही कि भोगे हुए दुख के बिना कोई कायदे
का शायर नहीं हो सकता। फ़िल्म की ही भाषा में कहे तो 'शायर बणदा
नहीं, हौन्दा है!"
आज की तेज़ भागती हुई ज़िंदगी में पौने तीन घंटे की फ़िल्म बनाना,
वह भी 'शायर' जैसे गैर-बाज़ारू विषय पर - यह हिम्मत की बात है।
उस पर भी फ़िल्म का अंत में ट्रैजिक बिंदु को छूना - भारतीय मिज़ाज
के हिसाब से यह तलवार की धार पर चलने जैसा था। हैरत और खुशी
की बात है कि इन सारे ख़तरों के बावजूद यह फ़िल्म चार हफ्तों से
बुलंदी के साथ टिकी है!
बधाई हो, सरताज भाई! ऐसे ही झंडे गाड़ते रहो❤️❤️

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