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बचपन में रामचरितमानस से पहला परिचय नानी ने करवाया था। जिस कमरे में वो रहती थीं वो दिन भर एक ड्राइंग रूम का भी काम करता था। ले दे के उसमें एक लकड़ी की चौकी थी। चौकी से ज्यादा हम उसके सफेद काली टाइल से सुसज्जित फर्श पर ही बैठते, सोते और नाश्ता करते थे।

कमरे के एक कोने में एक छोटी सी खुली अलमारी थी जिसके नीचे की पटिया पर रामचरितमानस की एक प्रति रखी हुई थी। नानी हर सुबह उठकर उसके किसी न किसी अध्याय का पाठ किया करती थीं। हम बच्चे भी कभी कभी उनके आस पास बैठ जाया करते थे। राम रावण की कथा तो तब थोड़ी बहुत पता ही थी पर कुछ प्रसंग नानी की संगति में हमें भी पता चल जाते थे। पर कथा से ज्यादा मेरा ध्यान उसके बाद मिलने वाले मीठे मुनके पर ही ज्यादा रहा करता था।

दशहरे में जब भी हम कानपुर जाते, नानी अपने साथ हमें रामलीला दिखाने के लिए तत्पर रहतीं। उनके साथ कानपुर की सड़कों पर सिया, राम और लक्ष्मण की झांकी हम खुशी खुशी देखते। राम और उनकी कथा उनके मन मस्तिष्क में रच बस गई थी। उन जैसे कम पढ़े लिखे लोगों के लिए वो पुस्तक जीवन का महाकाव्य थी और उसके नायक सबसे ज्यादा आराध्य। नानी की हमेशा से इच्छा थी कि राम का भव्य मंदिर बनें। नब्बे के दशक में मंदिर के लिए ईंट जोड़ने के लिए अपनी हमउम्र सखियों सहेलियों के साथ उन्होंने भी अपना योगदान किया। मुझे लगता है कि न केवल मेरी नानी बल्कि उनकी पीढ़ी के अधिकांश लोगों ने बड़ी शिद्दत से इस मंदिर का सपना देखा होगा।

आज जब टीवी पर रामलला की मुस्कुराती छवि दिखाई दे रही थी तो मुझे उसके पीछे नानी की आंखों का संतोष दिखाई दे रहा था। जो वो जीते जी नहीं देख पाई वो आज इतने सालों बाद फलीभूत हुआ है। नानी के साथ मेरी ज्यादा तस्वीर नहीं हैं। बस एक बड़ी मुश्किल से मिली जिसमें उनकी आंखें बंद हो गई हैं। मुझे विश्वास है कि नानी जहां कहीं भी होंगी वो रामलला के इस मुदित चेहरे को देख आनंदित हो रही होंगी।

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