आप चाहें तो ऐसे तस्वीर को पोस्ट कर
आलोचना कर सकते हैं,
लेकिन मैं इंशा अल्लाह ऐसे मंजर के तह तक
जाने की कोशिश करूंगा…
मैं फ़िर्क़ा-वारियत में ना जाकर
इसका सामाजिक विश्लेषण करना चाहूंगा…
कहीं ताजिया को देवी का रूप,
तो कहीं ताजिया को देवता का रूप…
अनेकों रिवाज़/कल्चर हुनूद से सीधे मुसलमानों में प्रवेश किया है और दिन प्रतिदिन करते जा रहा है, और उसी में से एक ये भी है ताजिया को अब मूर्ति का रूप देना…
असल में शासन प्रशासन पर जिस समुदाय का वर्चस्व रहता उसका कल्चर/रिवाज़ प्रजा पर खूब झलकता है, खासकर गरीब/मजदूर तबके में अधिक…
ताजिया को मूर्ति का रूप देना…
इससे साफ पता चलता है कि "हम" पर हुक़ूमत करने वाले मूर्तिपूजक हैं और "हम" मूर्तिपूजक के गुलाम…
आप चाहें जितना चिल्ला लें,
फतवा का ढेर इकट्ठा कर लें
लेकिन इसका असर शायद ही दो चार प्रतिशत लोगों पर हो…
क्योंकि आज की हुकूमत/निजाम मूर्ति पूजा को गलत नहीं मानता चाहे किसी भी रूप में कोई भी करे, मुसलमान करे या कोई और…
इन-फैक्ट, संविधान, कानून आदि से लेकर अभी शासन प्रशासन पर जिस समुदाय का वर्चस्व है उसका तो अधिक से अधिक यही प्रयास है कि मुसलमान को कैसे जल्द से जल्द जल्द मुर्तद बनाकर "घर वापसी" कराया जाए…
मेरा तो यही मानना है कि कल्चर हमेशा हुक्मरान तबका बदलता है, महकूम तो बस फॉलो करता है…