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आदिगुरु शंकराचार्य एक बार शाक्तमत का खंडन करने के लिए कश्मीर गए थे। लेकिन कश्मीर में उनकी तबीयत खराब हो गई । उनके शरीर में कोई ताकत नहीं थी । वे एक पेड़ के पास लेटे हुए थे ।
वहां एक गोवालन सिर पर दही का बर्तन लेकर निकली । आचार्य का पेट जल रहा था और वे बहुत प्यासे थे। उन्हों ने गोवालन से दही मांगने के लिए उनके पास आने को इशारा किया । गोवालन ने थोड़ी दूर से कहा "आप यहाँ दही लेने आओ"
आचार्य ने धीरे से कहा, “मुझमें इतनी दूर आने की शक्ति नहीं है। बिना शक्ति के कैसे?
हंसते हुए गोवालन ने कहा, 'शक्ति के बिना कोई एक कदम भी नहीं उठाता और आप शक्ति का खंडन करने निकले हैं?'
इतना सुनते ही आचार्य की आंखें खुल गईं । वह समझ गए कि भगवती स्वयं ही इस गोवलन के रूप में आयी हैं। उनके मन में जो शिव और शक्ति के बीच का अंतर था वो मिट गया और उन्होंने शक्ति के सामने समर्पण कर दिया और शब्द निकले "गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी"
समर्पण का यह स्तवन "भवानी अष्टकम" के नाम से प्रसिद्ध है, जो अद्भुत है । शिव स्थिर शक्ति हैं और भवानी उनमें गतिशील शक्ति हैं.... दोनों अलग-अलग हैं... एक दूध है और दूसरा उसकी सफेदी है... नेत्रों पर अज्ञान का जो आखिरी पर्दा भी माँ ने ही हटाया था इसी लिए शंकर ने कहा "माँ, मैं कुछ नहीं जानता"।

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