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पिछले हफ्ते दिल्ली की एक दिनी यात्रा में तानसेन मार्ग तक जाना हुआ। ये वही दिन था जब रात की तेज बारिश ने दिल्ली की सड़कों व अंडरपास के आस पास जल जमाव से सारी दिल्ली सुबह से भीषण जाम से त्रस्त थी। दिन के तीन बजे के बाद जब फुर्सत हुई तो बाहर निकला। बाहर आसमान साफ था और ट्राफिक भी सामान्य हो चला था।
वापस लौटने में अभी घंटे दो घंटे का वक़्त था। गूगल मैप पर नज़र दौड़ाई तो देखा कि मात्र पन्द्रह मिनट की पैदल यात्रा से दिल्ली की मशहूर अग्रसेन की बावली तक पहुंचा जा सकता है। फिर क्या था चल पड़े तानसेन पथ को विदा कर बाराखंभा मार्ग की ओर। इसी रास्ते में बाईं ओर हैली रोड के लिए रास्ता कटता है जो आपको दस मिनट चलने के बाद अग्रसेन की बावली तक पहुँचा देता है। बावली रिहायशी इलाकों से यूँ घिर गयी है कि अगर पता न हो तो आप इस ऐतिहासिक भवन को बिना ध्यान दिए बगल से यूँ ही निकल जाएँ।🙂
बावली के सामने पहुँचकर पहला संशय तो इसके नाम को लेकर होता है। अग्रवालों के सिरमौर महाराज अग्रसेन के नाम से सामान्यतः जानी जाने वाली इस बावली यानी Stepwell को ASI अपनी पट्टिका में उग्रसेन का नाम देता है। इस बावली का स्थापत्य लोधी और तुगलक काल में बनाई गयी इमारतों से मिलता जुलता है। हालांकि ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल में इसी स्थान पर अग्रोहा जो आज के हिसार के पास स्थित है, के राजा अग्रसेन ने यहाँ जल संचय के लिए एक बावली का निर्माण किया था। इन्हीं अग्रसेन के वंशज बाद में अग्रवाल कहलाए। शायद चौदहवीं शताब्दी में अग्रवाल समाज ने अग्रसेन द्वारा बनाई गयी इस बावली का इस रूप में विस्तार किया हो।
ये आयताकार बावली साठ मीटर लंबी और लगभग पन्द्रह मीटर चौड़ी है। गर्मियों में जब ये बावली सूखी होती है तो इसके तीनों मंजिलों के प्रवेश द्वार स्पष्ट दिखते हैं पर मैं जब यहाँ पहुँचा तो निचला द्वार पानी में डूबने के कारण दिख ही नहीं रहा था। उसी रास्ते में आगे बढ़ने पर एक कुआँ दिखाई देता है।
प्रवेश से कुंड तक का रास्ता तय करने में सौ से ज्यादा सीढ़ियां तय करनी पड़ती हैं। बलुआ पत्थरों से बनी दीवारें दोनों ओर बराबर अंतरालों पर मेहराबों से सुसज्जित हैं। युवाओं के लिए ये मेहराबें पोज़ मारने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान हैं। कुएं के पास की छत पर चमगादड़ों और कबूतरों की फ़ौज़ रात और दिन में बारी बारी से गश्त देती है।
सीढियों से उल्टी तरफ एक छोटी सी मस्जिद भी है जिसकी एक दीवार क्षतिग्रस्त है। अच्छी बात ये है कि बावली के दोनों ओर थोड़े बहुत पेड़ बचे हैं। बावली के सामने अहाते में पीपल का पेड़ अपनी विशालता से ध्यान आकर्षित करता है। मैं तो यहाँ उमस भरे दिन पहुँचा पर सुबह सुबह इन पेड़ों के बीचों बीच सीढ़ियों पर शांति से बैठना सुकून देता होगा। फिल्म पीके में आपको याद हो तो नायक इन्हीं सीढ़ियों पर बैठकर सोच विचार में डूबा था। 🙂

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