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सर्वोच्च न्यायालय ने कांवड़ मार्ग पर नाम पट्टिका सम्बंधित आदेश पर रोक को आगामी 5 अगस्त तक के लिए बढ़ा दिया है।
जिस दिशा निर्देश पर विवाद हुआ,उसमे कहीं भी यह नही लिखा था कि कोई गैर-हिंदू कांवड़ यात्रा के मार्गों पर अपनी ढाबा-होटल-ठेला आदि (मांस विक्रेताओं को छोड़कर) नही लगा सकता।
इस आदेश के अनुसार,प्रत्येक दुकानदार-ढाबा संचालक,चाहे वह किसी भी मजहब का हो,उसे अपने वास्तविक नाम की पट्टी लगानी थी।
कई गैर-हिंदू अपनी वास्तविक पहचान छिपाकर देवी-देवताओं आदि के नामों पर खाद्य-पेय दुकानों,ढाबों का संचालन करते हैं।आखिर अपनी असली पहचान छुपाने और गलत पहचान बताने के पीछे क्या मंशा हो सकती है?
प्रश्न यह है कि देश की विभिन्न मतावलंबियों को अपनी आस्था के अनुरूप भोजन चुनने का अधिकार है या नही? यहूदी समाज मे 'कोशर' की मान्यता है।इसमें खाद्य उत्पादों को लेकर मजहबी नियम है।इनके समुदाय में केवल खाना ही नही अपितु भोजन का स्थान भी 'कोशर' होना चाहिए।
इसी तरह इस्लाम मे 'हलाल' की अवधारणा है, जिसका अर्थ वैध है।मुसलमानों के लिए शूकर का मांस 'हराम' है।यही कारण है कि जब मुस्लिम समाज मे ईद या फिर मुहर्रम का पर्व होता है, तो उनकी मजहबी आस्था का सम्मान करते हुए यातायात परिचालन तक मे अस्थायी तौर पर उचित परिवर्तन करते किये जाते हैं।
हिंदू समाज मे कांवड़ यात्रा कई किलोमीटर चलने वाली, एक कठिन तीर्थयात्रा है।कुछ कांवड़िए 'डाक कांवड़' भी लाते हैं।इसमें गंगाजल से भरे कांवड़ को बिना जमीन पर रखे भगवान शिव की मूर्ति या शिवलिंग को अर्पित करने और 'सात्विक भोजन' ग्रहण करने की मान्यता है।
करोड़ो हिन्दू पवित्र दिनों में तामसिक खाद्य वस्तुओं, जैसे प्याज-लहसुन आदि के साथ साधरण नमक तक का सेवन भी नही करते हैं।
प्रत्येक सनातनी को अपने देवी- देवताओं को चुनने, उनकी आराधना करने और उनसे आध्यात्मिक पूरी करने की स्वीकृति है।
मेरा मत है कि देश मे यदि एक भी हिंदू ,मुस्लिम या यहूदी अपनी मजहबी आस्था के अनुरूप भोजन करना चाहता है, तो उसकी पूर्ति करने का दायित्व हमारी सांविधानिक-शासकीय व्यवस्था के साथ सभ्य समाज का भी है।

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