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भगवान राम के प्रति आस्था, श्रद्धा, भक्ति रखने से धर्म के सभी गुण स्वतः ही आकर्षित होने लगते हैं। उसके लिये किसी अतिरिक्त तपस्या कि आवश्यकता अनिवार्य न होगी।
मर्यादापुरुषोत्तम राम जब हृदय में प्रतिष्ठित होते है। तो भगवान भरत जी के जीवन मूल्य ध्यान आते है।
दर्शन, धर्म के सभी सनातन विचार जंहा एक साथ ईश्वर द्वारा परिभाषित है। वह गीता है। जंहा उनके उपदेश, निर्देश संकलित है। उसमें जो सबसे प्रमुख, प्रभावशाली विचार भगवान अर्जुन के सामने रखते है।
वह है कि ' कर्ता ' का भाव त्याग दो।
क्योंकि कर्ता का भाव अहंकार का प्रथम बीज है। और अहंकार धर्म में बहुत गहरा बैर है। धर्म कि वहां छाया भी नही पड़ सकती। जंहा अहंकार है। यदि यह कही दिखता है, तो वह मात्र आडंबर है।
कर्ता के भाव को छोड़ना बहुत कठिन है। यह कहते हुये सरल लगता है। ईश्वर जब कह रहे है तो अवश्य तप होगा।
लेकिन भगवान भरत के पास चलिये। जो एक कुटिया में बैठे है। जँहा मंत्रियों, सैन्य प्रमुखों, पदाधिकारियों के दल आदेशों के हस्तक्षार हेतु आते रहते है। ऋषियों, विद्वानों, पुरोहितों के समूह आशीर्वाद और चर्चा के लिये आते रहते है।
लेकिन जो दृश्य भावपूर्ण है। वह है स्वर्ण, मणि जड़ित सूर्यवंश के सिंहासन पर एक खड़ाऊ रखा है। उसके सामने, नीचे भरत जी बैठकर सारा राजकार्य देख रहे है।
वह खड़ाऊ मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचन्द्र जी का है। भरत जी का हर कर्म उन्हीं के चरणों मे समर्पित है।
यही अकर्ता का भाव है। भरत जी में कोई कर्ता का भाव नही है। वह कुछ कर ही नही रहे हैं। सब राम के चरणों में समर्पित है।
हनुमानजी जब जगतजननी सीता जी का पता लगाकर वापस प्रभु के पास आते है।
तो भगवान उनके लिये क्या कहते है -
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।
"तुम भरत के समान प्रिय हो।"

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