नवरात्र: - चौथी कुष्मांडा देवी
नवरात्र के चौथे दिन माँ कुष्मांडा के रूप के दर्शन का विधान है। वाराणसी में माँ कुष्मांड दुर्गाकुंड स्थित दुर्गा मंदिर में विराजमान हैं। यहाँ माँ दुर्गा रूपी कुष्मांड का अति प्राचीन भव्य मंदिर है। इसके अलावा काशी में ज्ञानवापी परिक्षेत्र में स्थित मां श्रृंगार गौरी के दर्शन की मान्यता भी इस दिन हैं। मां श्रृंगार गौरी, देवी दुर्गा का गौरा रूप मानी गयी हैं।
दुर्गाकुंड में रात से ही जुटने लगते हैं श्रद्धालु
दुर्गाकुंड मंदिर में रात से ही मां कुष्मांड के दर्शन के लिए भक्तों की अपार भीड़ उमड़ पड़ती है। चूंकि यह मंदिर वाराणसी में होते हुए भी जगत प्रसिद्ध है इसलिय अन्य दिनों में भी यहां अधिक संख्या में श्रद्धालुगण मां के दर्शन के लिए आते हैं। बनारस के इस अतिप्राचीन मंदिर में श्रद्धालुगण अपनी अपनी मनौतियां भी मां के सामने हाथ फैलाकर मांगते हैं, जिसे परमकल्याणी मां जरूर पूरा करती हैं, ऐसी लोगों की आस्था है।
कौन हैं मां कुष्मांडा
मान्यता हैं की वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कूष्माण्डा हैं। देवी कूष्माण्डा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी उस समय अंधकार का साम्राज्य था। देवी कुष्मांडा जिनका मुखमंडल सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है उस समय प्रकट हुईं। मान्यताओं के अनुसार उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयीं और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ। अत: यह देवी कूष्माण्डा के रूप में विख्यात हुई।
कहां रहती हैं मां
माँ कुष्मांडा का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है और यह सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं। इस दिन भक्त का मन ‘अनाहत’ चक्र में स्थित होता है, अतः इस दिन उसे अत्यंत पवित्र और शांत मन से कूष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा करनी चाहिए। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड कूम्हडे को कहा जाता है। कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है। इस कारण भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है।
18वीं शताब्दी में बना है नया मंदिर
वाराणसी का प्रसिद्ध दुर्गाकुंड मंदिर में विराजमान मां कुष्मांडा स्वयं प्रगट हुई हैं ऐसी मान्यता है। अनादिकाल से यहां पूजा-अर्चना होती आयी है। वहीं मौजूदा मंदिर का भवन 18वीं शताब्दी में बंगाल की महारानी द्वारा बनवाया गया था। इसके ठीक बगल में एक बड़ा कुंड है जिसके बारे में कहा जाता है कि ये भीतर ही भीतर मां गंगा से जुड़ा हुआ है। देवी भागवत पुराण के 23वें अध्याय में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है।
एक अन्य कहावत के अनुसार
किसी काल में काशी नरेश अपनी पुत्री शशिकला का स्वयंवर आयोजित कराते हैं। मगर बाद में उन्हें पता चलता है कि उनकी पुत्री शशिकला एक वनवासी राजकुमार से प्रेम करती है। इसपर काशी नरेश गुप्त रूप से अपनी पुत्री का विवाह वनवासी राजकुमार के संग करा देते हैं। वहीं जब इस बात की जानकारी स्वयंवर में पहुंचे एक राजा को होती है तो वह काशी पर आक्रमण कर देता है। इसी बीच वनवासी राजकुमार जिसका नाम सुदर्शन था उसने मां दुर्गा का आह्वान किया जो यहीं प्रगट हुई और युद्ध में काशी नरेश की ओर से लड़ीं। बाद में काशीनरेश ने मां दुर्गा से सदा सदा के लिये यहीं विराजमान होने का अनुरोध किया जिसे दुर्गा मां ने स्वीकार कर लिया। तब से यहां मां दुर्गा का मंदिर मौजूद है।🙏
जय माँ कुष्मांडा 🙏🚩
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