प्रेम पीड़ा कि उस गहराई तक ले जाता है। जँहा से इसी जीवन में, जीवन का पुनर्जन्म होता है। यह change नहीं है, Transformation है।
जो आप पहले थे। अब वह नही है।
यहां दो चीजें महत्वपूर्ण हो जाती हैं।
पहला क्या आप प्रेम ही किये थे।
दूसरा आपकी आत्मा में कितनी शक्ति है।
प्रेम का प्रेम होना बहुत दुर्लभ है। हम वासना, आकर्षण, काल्पनिक स्वंयम्बर को भी प्रेम कह देते हैं।
प्रेम कि पीड़ा से जो ऊर्जा निकलती है। वह ब्रह्मलोक से निकली गंगा जी जैसी वेगवान, तेजवान होती है। उसको दिशा देने के लिये शिवत्व चाहिये। अपनी जटाओं को कुछ इस तरह विस्तार दे कि गंगा को समेट कर पृथ्वी को हरा भरा कर दे। यही आत्म शक्ति प्रेम कि पीड़ा को संभालने के लिये चाहिये।
हमारे यहाँ बौद्धिक विमर्श होता है कि राधा जी थी भी या नहीं। लेकिन भक्त कवियों को कोई संदेह नहीं था।
उसका एक कारण है।
श्रीकृष्ण का जीवन समस्त कलाओं में जैसे विकसित, उत्कृष्ट, अवर्णित, समस्त लोकों में प्रकाशमान हैं। वह किसी गहरे प्रेम कि परिणीति ही हो सकता है। हमनें लौकिक जगत में उस प्रेम को राधा कह दिया।
ईश्वर अपने गहरे प्रेम से ही इस ब्रह्मांड कि रचना किया है। वह अंनत प्रेमियों का प्रेमी है। उसने पुष्प के गहरे तल में मकरंद को रख दिया। जो भौरों को आकर्षित करता है। परागकणों के फैलाव और निषेचन से उसका ब्रह्मांड चल रहा है।
प्रेम और उस प्रेम की पीड़ा को जो दिशा दे सकता है। वह भी इस जगत के सृजन में ईश्वर का सहयोगी है।।