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इंटरनेशनल गायिका मैथिली ठाकुर जिनके उत्तराखंड में इन दिनों हर घर में चर्चे हैं, कैसे बिहार से ताल्लुक़ रखने वाली लड़की उत्तराखंड में धमक क़ायम कर गई. मैथिली ने हल्द्वानी पहुँचकर हम सभी लोगों को अपनी संस्कृति की ओर बढ़ने और उसे अपनाने के लिए प्रेरित किया है.
“बेडू पाको बारामासा” …. और “सुआ रे सुआ” जैसे गीतों पर मैथिली ने जैसे ही हारमोनियम पर अपना हाथ रखा तो मानों पूरा पहाड़ सहित उत्तराखंड सोशल मीडिया में थिरकने को मजबूर हो गया.
मैथिली से मिलकर बिल्कुल भी ऐसा अनुभव प्रतीत नहीं हुआ कि वह बिहार मूल की हैं, बिहार के लोग हमेशा अपने पर्वों के लिए संजीदा रहते हैं वह फिर छट, करवाचौथ हो या फिर कोई और फ़ैस्टिवल मैथिली से बात करके ऐसा लग रहा था कि वह उत्तराखंड के 13 ज़िलों में से किसी एक ज़िले से हल्द्वानी के क़ुमाऊँ द्वार महोत्सव में परफॉरमेंस देने आयी हैं.
मेरा सवाल यही था कि हम अपने कल्चर फ़ोक और विरासत को छोड़ रहे हैं, तब उनका कहना था अब लोग फिर अपनी जड़ों से जुड़ने लगे हैं. उन्होंने तो इंटरनेट मीडिया से उत्तराखंड के इन सांग्स को सुनकर सीख लिया.
यानी स्पष्ट है की जिन पेड़ों की जड़ें मज़बूत नहीं होती हैं वह जल्दी धराशायी हो जाते हैं, इसलिए समय हैं हर किसी की अपनी संस्कृति से जुड़ने और बोलने और समझने का.
यानी मैं ऐसा आपसे बिल्कुल नहीं कहूँगा कि आप कल्चर अपनाने के लिए पहाड़ आ जाओ, आप जहाँ भी रोज़गार या अन्य प्रयोजन के लिए गए हैं… हाँ इतना ज़रूर कहूँगा कि अपने बच्चों को अपनी - अपनी संस्कृति से ज़रूर जोड़े रखें,
आज के नौजवान युवक युवतियों से जब पूछा जाता है आप पहाड़ी बोल लेते हैं उनका जवाब आता है बोल नहीं पाते पर समझ ज़रूर जाते हैं, उत्तराखण्ड में लगभग 2 मिलियन लोग वर्तमान में कुमाऊँनी गढ़वाली बोलते हैं, अगर हमने इसे बचाया नहीं तो यह संख्या कब गिर जाएगी पता नहीं चलेगा.
इंटरव्यू का लिंक कॉमेंट बॉक्स पर है.
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