विनय ना मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीत॥
यह चौपाई श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में रघुनाथ श्रीराम जी और सागर के संदर्भ में लिखे हैं कि प्रभु श्रीराम के मार्ग माँग करने के विनय को जड़ बुद्धि सागर ने अनसुना कर दिया तब कौशल्यानन्दन क्रोधित हो अपने वाण का सन्धान किए।
उसी क्षण सागर के प्रकट हो कर प्रभु से बारम्बार क्षमा याचना करने व मार्ग देने पर दयानिधि श्री राम ने उसे क्षमा कर उस वाण को मध्यपूर्व को ओर भेज दिए, वाण के ताप फलस्वरूप आज भी वह क्षेत्र मरुस्थलीय ही है।
तो सागर की मनोदशा का अनुमान लगाना किसी के भी वश में नहीं है। यह उक्ति सागर के प्रवृत्ति पर पूर्णतः सही बैठता है :-
क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा:, रुष्टा तुष्टा क्षणे क्षणे।
अव्यवस्थित चित्तानाम् प्रसादोअ्पि भयंकर:॥
यानि सागर के मन व प्रवृत्ति का आंकलन मानव के लिए अत्यंत कठिन है।
कह सकते हैं कि सागर की मनोवृत्ति एक चञ्चल नारी सदृश्य होते हैं कि वो कब हर्षित होगी और कब क्रोधित इसका अनुमान ज्ञानी लोग भी नहीं लगा सकते हैं।
जब लीलाधर श्री कृष्ण के श्री जगन्नाथ मन्दिर को सागर तट पर पुरी, ओडिशा में स्थापित किया गया तो सागर के इस प्रवृत्ति को भी ध्यान रखा गया।
अब सागर के उद्दात्त लहरों को शान्त करने हेतु प्रभु श्रीमन्नारायण तो अवतरित नहीं होते तो इसका समाधान सनातनी मनीषियों ने अपने अद्भुत ज्ञान व दूरदर्शिता से सफलता पूर्वक निकाला।
पूज्य शंकराचार्य के निर्देशन पर..
श्री जगन्नाथपुरी मन्दिर के दक्षिणी द्वारा पर उन्होंने रुद्रावतार आञ्जनेय महावीर स्वामी को स्थापित कर दिए।(चित्र-साभार)
आञ्जनेय हनुमानजी सागर के उन आक्रोशित लहरों को सदैव शान्त किए रहते हैं और आज तक कभी भी प्रचण्ड लहरों से मन्दिर को कोई क्षति नहीं पहुँची है, जबकि सागर निकट ही है।
सनातनी पूर्वजों के भक्ति, समर्पण व दिव्य दृष्टि को बारम्बार नमन करते हैं।
अद्वितीय सनातन धरोहर...!!