एक वो दौर था, जब सांझ की बेला में भूख लगने पर मैगी नहीं बनती थी, न ही मोमोज-बर्गर बाजार से आते थे
जब भी भूख लगती तो माँ कटोरदान से रोटी निकाल कर, नोन (लोन) (नमक) सरसों तेल, अंचुर (अमचुर) चुपड़ कर रोटी कट्टी (पराठा की तरह तिकोन) करके पकड़ा देती थी
..... और हम लोग, घूम-घूम कर कट्टी बनाकर खाते रहते थे घर में रोटी तो दो ही बार बनती थी,
पर खूब ढेर सारी रोटियों बिना गिने बनाकर रख दी जातीं थीं जिसका जब मन होता, माँ निकाल कर, उसका स्वाद बदल दिया करती थीं रोटी में कभी-कभी, ताजा मक्खन चुपड़ा जाता रहा
कभी देशी घी लग जाता
कभी चीनी-रोटी मिल जाती
.....तो कभी घी-गुड़ रोटी मिल जाती थी
कभी लड्या-गुड़,
तो कभी चूरा भी हमारी छोटी भूख में साथ तब तक देता, जब तक
भोजन बनकर तैयार नहीं हो जाता !
जब कभी माँ बहुत खुश होती, तो गेंहू और चना उबाल कर घुघुरी बना देती और
दूसरी तरफ लहसुन, हरी-मिर्च, धनिया का तीखा-सा चटपटा नमक सिलबट्टे (सिलौटीं) पर बटती
जिसे हम खूब चाव से खाते अब तो मोमो बर्गर और मैगी ने हर जगह अपने पैर पसार लिए हैं।
अब की पीढ़ी के हमारे बच्चे इन देशी चीजों के बारे क्या जानें लेकिन फिर भी घर में कुछ यूं देशी चटपटी चीज़े बनाया करें और बच्चों को टेस्ट करवाएं
क्या पता उन्हें भी पसन्द आए और वो भी मैदे की बनी मैगी खाना कम कर दें
जंक फूड फास्ट फूड की ओर दौड़ रही पीढ़ी के लिए आपका क्या सुझाव है ?