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#जयस
आज पूरा देश पुष्पा मूवी देख कर एक टांग रगड़ कर चल रहा है। अगर ऐसे ही जय भीम मूवी देख कर पूरा आदिवासी समाज हक और अधिकार के लिए लड़े तो बदलाव होने में देर नहीं लगेगी।
आदिवासी भगवती भील Mahendra Singh Kannoj
महोत्सव के सरस मेले में आर्गेनिक खेती से उगाई सब्जियों को लेकर पहुंचा किसान
कुरुक्षेत्र 2 दिसंबर अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव के सरस और शिल्प मेले ने पूर दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना ली है। इस महोत्सव के दौरान गांव जाजनपुर का एक किसान हरमिंदर अपने खेत में ऑर्गेनिक खेती से उगाई गई 6 फुट की लौकी को लेकर पहुंचा है। यह किसान महोत्सव में पैदल ही घुम-घुमकर आमजन को ऑर्गेनिक खेती को अपनाने का संदेश दे रहा है।
किसान हरमिंदर सिंह ने बातचीत करते हुए कहा कि वे अपने खेत में ऑर्गेनिक खेती के माध्यम से शलजम, गौभी, अरबी, हल्दी, आलू की सब्जियों का उत्पादन भी करते है। वह इन सब्जियों को उगाने में किसी भी प्रकार की अग्रेंजी दवाईयों और खाद का प्रयोग नहीं करते है। इस 6 फुट की लौकी के साथ-साथ वह 5 किलो का शलगम और 9 किलो का रतालू भी उगा चुके है। अपनी आर्गेनिक सब्जियों के माध्यम से वह 1998 से लेकर अब तक अपने ही कई रिकॉर्ड तोड़ चुके है। अपनी आर्गेनिक सब्जियों की खेती के माध्यम से वह अपना नाम इंडिया बुक ऑफ रिकार्ड लिम्का भी दर्ज करवा चुके है और वह किसान राष्ट्रीय अवार्ड भी जीत चुके है। ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए वह सरकार की तरफ से इजरायल की यात्रा भी कर चुे है। कृषि विश्वविद्यालय द्वारा उनको 100 से अधिक अवार्डों से नवाजा जा चुका है। उन्होंने महोत्सव में आने वाले पर्यटकों से अपील करते हुए कहा कि वे भी ऑर्गेनिक खेती को अपनाएं ताकि अत्यधिक दवाइयों के प्रयोग से उगाई जाने वाली सब्जियों से होने वाली बीमारियों की रोकथाम की जा सके।
"महान क्रांतिकारी टंट्या मामा भील का नाम सुन कर कांप जाते थे अंग्रेज"
अंग्रेज गरीबों पर जुल्म ढाते, अत्याचार करते, महीनों की मजदूरी के बदले कौड़ो से पीटते. उनकी हैवानियत यही नहीं रुकती.. वो मजदूरों को रोटी जगह उनके जख़्मों पर नमक रगड़ते। कुछ काले अंग्रेज (भारतीय) भी उनका इस कुकृत्य में साथ दे रहे थे. ये अन्याय टंट्या मामा को मंजूर नहीं था. ये एक अकेला क्रांतिकारी ब्रिटिशों की नींद उड़ाने के लिए काफी था.
टंट्या मामा की दांस्ता आत्मप्रेरणा से प्रेरित महान क्रान्तिकारी की गौरव गाथा है उस समय हिंदुस्तानियों के खून पसीने की कमाई को अंग्रेज रेलगाड़ियों में भर कर इंगलिस्तान ले जाते थे, लेकिन ट्रेन पातालपानी (महू) के जंगलों को पार नहीं कर पाती.
टंट्या मामा बिजली की तरह प्रकट होते और लूट का सारा पैसा लेकर अंतर्ध्यान हो जाते. ये पैसा जरूरतमन्दों और गरीबों में बांट दिया जाता.
स्थानीय लोकभाषा में आज भी गीतों में उल्लेख आता है कि कैसे टंट्या मामा बेटियों की शादी के लिए, बीमारों को उपचार हेतु भोजन,कपड़े और मकान हेतु वो सारा पैसा भेंट कर देते थे। अपनी जान दाँव पे लगा कर, अपनोंं की सेवा करने का इससे बेहतरीन उदाहरण दूसरा नहीं मिलता.
आज की ही तारीख 4 दिसम्बर 1889 को जबलपुर सेंट्रल जेल में टंट्या मामा को फांसी दे दी थी. लेकिन टंट्या मामा को मार पाए वो फांसी का तख्ता आज तक बना नहीं, आज भी टंट्या मामा हमारे दिलों में जिंदा है.