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हस्तिनापुर कि सभा में भरत की वंश बहू और
द्रुपद की पुत्री को कर्ण ने बोला.... यह वेश---- है।
एक 16 वर्ष के बालक ने युद्धकला की सबसे कठिन ब्यूह रचना को तोड़ दिया। उस परम् वीर बालक का उद्देश्य बस इतना था कि द्रोण, युधिष्ठिर को बंदी न बना पाये।
उस बालक को कुरुक्षेत्र के सात महारथियों ने मिलकर मारा।
उसके ऊपर पहली तलवार कर्ण ने चलाई थी।
*
महाभारत युद्ध में आज अर्जुन कर्ण आमने सामने हैं।
यह युद्ध बहुत उच्चकोटि का है।
यह युद्ध योद्धाओं से ही नहीं, सारथियों के लिये प्रसिद्ध है। उस समय के सबसे निपुण सारथी भगवान कृष्ण और राजा श्लैय हैं।
अर्जुन दिव्यास्त्र निकालते हैं।
तभी अचानक से कर्ण के रथ का पहिया भूमि में धँस जाता है।
वह अर्जुन से कहता है....
हे श्रेष्ठ धनुर्धर, तुम क्षत्रिय हो, युद्ध के सभी नियमों में निष्ठा है। मैं पहिया जब तक नहीं निकाल लेता, बाण मत चलाना।
अर्जुन बाण नीचे कर लिये।
कर्ण पहिया निकाल रहा है।
विदेशमंत्री जयशंकर अपनी पुस्तक में उनको ईश्वर ही नहीं सबसे महान डिप्लोमैट कहते हैं। अपनी अपनी श्रद्धा है।
तो वह परमेश्वर, वह महान डिप्लोमैट कहते हैं...
क्या देख रहे हो पार्थ ?
अर्जुन कहता है, यह युद्ध के नियमों, धर्म के विरुद्ध है भगवन।
भगवान कहते हैं -
वह कर्ण किस नियम का पालन किया है ?
धर्म के किन मूल्यों पर यह कर्ण चला है। वह दुर्योधन के हर पाप का भागीदार है।
बाण चलाओ, मारो इसे।
दिव्यास्त्र ने कर्ण का धड़ अलग कर दिया।
यह ज्ञान, यह डिप्लोमेसी भारत ने अपने इतिहास में बहुत बार भुला दिया।
धर्ममात्मा से धर्मयुक्त व्यवहार होता है... अधर्मियों से नहीं।।
सती प्रथा, विधवा प्रथा और बाल विवाह जैसी क्रूर प्रथाओं के जन्म के पीछे भी मुख्य वजह जाति की शुद्धता की रक्षा थी। जो कोई भी भारत मे स्त्रियों के दोयम दर्जे के स्थिति को समझा चाहता है, उसका प्रस्थान बिन्दु यही निबंध हो सकता है।
आंबेडकर अपने इस निबंध में यह स्थापित करते हैं कि जाति और स्त्री पर पुरूष का प्रभुत्व एक ही सिक्के के दो पहलु हैं।
आगे चलकर आंबेडकर ने इस विषय पर एक मुकम्मिल किताब लिखी कि भारत में महिलाओं की दासता और दोयम दर्जे की स्थिति के लिए ब्राह्मणवाद ही जिम्मेदार है। उस किताब का नाम है- ‘हिंदू नारी उत्थान और पतन’। इस किताब विस्तार से आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी शास्त्रों को उद्धृत करके बताते हैं कि कैसे हिंदू धर्मशास्त्र स्त्रियों की दासता और गरिमाहीन अपमानजनक स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। इस किताब में आंबेडकर लिखते हैं कि “भारतीय इतिहास इस बात को निर्विवाद रूप से सिद्ध कर देता है कि एक ऐसा युग था,जिसमें स्त्रियां सम्मान की दृष्टि से देखी जाती थीं।….जनक और सुलभा, याज्ञवल्क्य और गार्गी, याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी आदि के संवाद यह दर्शाते हैं कि मनुस्मृति से पहले के युग में स्त्रियां ज्ञान और शिक्षा के क्षेत्र में उच्चतम शिखर पर पहुंच चुकी थीं।”
मनु और अन्य ब्राह्मण धर्मग्रंथों ने स्त्रियों की पूरी तरह मूक पशु में बदल दिया। मनु का आदेश है कि पुरूषों को अपने घर की सभी महिलाओं को स्त्रियों को चौबीस घंटे नियंत्रण में रखना चाहिए-
अस्वतंत्रा: स्त्रिया : कार्या: पुरूषौ: स्वैर्दिवनिशम्।
विषयेषु च सज्ज्न्त्य: संस्थाप्यात्मनों वशे।। ( 9,2 )
तुलसी दास भी कहते हैं कि नारी स्वतंत्र होकर विगड जाती है- ‘जिमि स्वतंत्र होई,बिगरहि नारी”
मनु स्त्रियों से इस कदर अविश्वास करते हैं, घृणा करते हैं कि वे लिखते हैं - “पुरूषों में स्त्रिया न तो रूप का विचार करती हैं, न उसकी आयु की परवाह करती हैं। सुरूप हो या कुरूष, जैसा भी पुरूष मिल जाय, उसी के साथ भोगरत हो जाती हैं”( मनु, 9,14 )। यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिए। राम सीता के चरित्र पर विश्वाश नहीं करते हैं और सीता से कहते हैं कि रावण ने अवश्य ही तुम्हारे साथ शारीरिक संबंध बनाय होगा ( इसके विस्तार के लिए बाल्मिकि रामायण का उत्तरकांड देख लें। )
‘हिंदू नारी उत्थान और पतन शीर्षक’ अपनी इसी किताब में आंबेडकर यह भी प्रमाणों के साथ स्थापित करते हैं कि बौद्ध धम्म मे स्त्रियों को समानता का अधिकार प्राप्त था। इसके लिए वे थेरी गाथों का उद्धरण देते है और अन्य प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
1916 के अपने पहले निबंध से लेकर हिंदू कोड बिल पेश करते समय तक डॉ. आबेडकर, महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के लिए लड़ते रहे। उनका यह मानना पूरी तरह सही था कि जैसे जाति के विनाश के साथ ही स्त्री मुक्ति का रास्ता पूरी तरह साफ होता है और इसके लिए ब्राह्मणवाद से पूरी तरह से मुक्ति अनिवार्य है। जाति और स्त्री की मुक्ति का प्रश्न एक दूसरे से जुड़ा है, यह सीख डॉ.आंबेडकर को अपने गुरू जाोतराव फुले से भी मिली थी।
वर्तमान समय में बहुत सारी महिला अध्येता फुले और आंबेडकर के विचारों के आलोक में भारतीय पितृसत्ता को ब्राह्मणवादी पितृसत्ता कहने लगी हैं। इनमें उमा चक्रवर्ती और शर्मिला रेगे जैसी अध्येता शामिल हैं।
इस विषय पर शर्मिला रेेगे की किताब ‘ मनु का पागलपन’ ( मैडनेस ऑफ मनु ) जरूर ही पढ़ना चाहिए।
ये कार्टून उस समय के हैं, जब डॉ. आंबेडकर ने यह बिल पेश कि
“5 फरवरी हिंदू कोड़ बिल दिवस '
हिंदू कोड़ बिल- ब्राह्मणवाद के चंगुल से महिलाओं की मुक्ति का बिल
भारत की महिलाओं को डॉ. अम्बेडकर के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए
डॉ. आंबेडकर ने हिंदू कोड़ बिल (5 फरवरी 1951) के माध्यम से महिलाओं की मुक्ति और समानता का रास्ता खोलने की कोशिश किया था। उन्होंने ब्राह्मणवादी विवाह पद्धति को पूरी तरह से तोड़ देने का कानूनी प्रावधान प्रस्तुत किया। इसके तहत उन्होंने यह प्रस्ताव किया था कि कोई भी बालिग लड़का-लड़की बिना अभिवावकों की अनुमति के आपसी सहमति से विवाह कर सकता है। इस बिल में लड़का-लड़की दोनों को समान माना गया था। इस बिल का मानना था कि विवाह कोई जन्म भर का बंधन नहीं है, तलाक लेकर पति-पत्नी एक दूसरे से अलग हो सकते हैं। विवाह में जाति की कोई भूमिका नहीं होगी। कोई किसी भी जाति के लड़के या लड़की से शादी कर सकता है। शादी में जाति या अभिवावकों की अनुमति की कोई भूमिका नहीं होगी। शादी पूरी तरह से दो लोगों के बीच का निजी मामला है। इस बिल में डॉ. आंबेडकर ने लड़कियों को सम्पत्ति में भी अधिकार दिया था।
इस बिल को विरोध मे तत्कालिन राष्ट्रपति राजेंन्द्र प्रसाद, सरदार बल्लभभाई पटेल, संघ परिवार और उसके संगठन सभी एकजुट हो गए और कहने लेकिन इससे तो हिंदुओं की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था नष्ट हो जायेगी, हिंदू संस्कृति का विनाश हो जायेगा। नेहरू भी पीछे हट गए।
आखिर आंबेडकर ने निराश होकर विधि मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
आंबेडकर का मानना है कि हिंदू महिलाओं की दासता, दोयम दर्जे की स्थिति और गरिमाहीन अपमानजनक जीवन के लिए ब्राह्मणवाद जिम्मेवार है।
महिलाओं के प्रति हिंदुओं के नजरिये का सबसे गहन और व्यापक अध्ययन डॉ. आंबेडकर ने किया है। 24 वर्ष की उम्र में 1916 में अपना पहला निबंध ‘ भारत में जातियां : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ ( कॉस्ट इन इंडिया: देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट) शीर्षक से कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया था। इस निबंध में उन्होंने यह स्थापित किया था कि जाति को बनाये रखने की अनिवार्य शर्त यह है कि स्त्रियों की यौनिकता पर पूर्ण नियंत्रण कायम किया जाय। इसके लिए जरूरी था कि स्त्रियों को पूरी तरह पुरूषों की अधीनता में रखा जाय। इस निबंध में आबेडकर ने लिखा है कि सजातीय विवाह की व्यवस्था के बिना जाति की रक्षा नहीं की जा सकती है, इसीलिए जाति से बाहर विवाह पर कठोर प्रतिबंध लगाया गया। विशेषकर प्रतिलोम विवाह के संदर्भ में।
गुलाब को लेकर चाहत उन दिनों कुछ अलग सी थी। चाहें कितना भी ना नुकुर करें पर उस दिन कॉलेज जाने वाली हर लड़की का दिल अलग सा धड़कता था।
लड़को के हाथ मे थामें उन गुलाबों को कोई लड़की मुस्कराते हुए थाम ले, इस बात का अलग ही वट हुआ करता था।
न यह कोई इकरार था और न ही कोई प्रणय निवेदन...बस पसंदीदा लड़की को इस बात का एहसास दिलाना होता था, कि वह कितनी खास है!
उन दिनों ऐसे ही किसी दिन कोई न जाने क्या सोच कर एक लड़की के लिए गुलाब का फूल ले गया। लड़की को न तो उस गुलाब और न ही उसके एहसासों की संजीदगी का अंदाज़ा था।
अपने दोस्तों के सामने खड़े होकर उसने बहुत हिम्मत से वो गुलाब उस लड़की को पकड़ाया था।
उसने गुलाब को देखा और फिर उस लड़के को। शायद पहली बार इतने करीब और गौर से देखा था। गहरी आँखों वाले उस लड़के के घुंघराले बालों की लटें उसके चेहरे पर आ रही थी, तो बहुत मासूम लगा था उसे। माथे पर पसीने की बूंदे लड़के की घबराहट को बयां कर रही थी...!
पहले उसे यह सब बातें बहुत ही फिल्मी लगती। उससे पहले हर गुलाब को उसने यूँही थाम कर सहेलियों के सामने अपने हाथ मे बढ़ते गुलाबों की गिनती को गर्व से बताया था।
पर उस समय उसे उस चेहरे को देखकर न जाने क्या हुआ? सारे दोस्तों की उस पर जमी निगाहों से झुंझलाकर उसने वो गुलाब उसके हाथों से खींचकर उसकी पत्ती पत्ती नोचकर फेंक दी, और बिना कुछ कहे चली गई।
सुना था कि उस लड़के ने घुटने के बल बैठकर एक एक पत्ती चुनकर उसे अपने हाथ की किताब में रख दिया था। उनकी महक ने जैसे पूरे वातावरण को अजीब से सन्नाटे में भर दिया था।
साल बाद लायब्रेरी में उस लड़की की पसंदीदा किताब के बीच मे उसे गुलाब के कुछ सूखे पत्ते मिले थे। शायद उन्हें यकीन था कि एक न एक बार यह किताब उसके द्वारा जरूर पढ़ी जाएगी, जिसके लिए वो गुलाब था।
जो सुर्ख गुलाब को अपना न सकी...सूखे पत्तों को सहेजे रखती है।
पुण्य क्या है?
आप कहेंगे भगवान का नाम लेना। गंगा नहाना। माता-पिता की सेवा करना। गरीब की मदद करना। लाचार की सहायता करना। भूखे को भोजन कराना आदि।
लेकिन तुलसीदास के मुताबिक़ -
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥
अर्थात्
जगत में पुण्य एक ही है, (उसके समान) दूसरा नहीं। वह है- मन, कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणों की पूजा करना। जो कपट का त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है, उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं॥
(उत्तरकांड: 7.45)
तुलसीदास की नीचता ये है कि उन्होंने ये बात राम के मुँह से कहलवाई है ताकि भोली-भाली जनता सवाल न करे। तुलसीदास ने हिंदू समाज को खंड खंड करने में बड़ी भूमिका निभाई है और फिर ये किताब उन्होंने अकबर के वित्त मंत्री टोडरमल को भेंट कर दी।