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आज चेतक पर
पुरखों की आन निभाना ही, मेवाड़ भूमि की पूंजी है।
ये वो धरती है जहां कभी चेतक की टापें गूंजी है।।
विश्व के इतिहास में बहुत कम देखने को मिलता है कि किसी पशु पर कवियों ने कविताएं लिखी हैं। मुझे इस बात का बेहद गर्व है कि मेवाड़ में अश्व चेतक पर वृहद् इतिहास लिखा गया है। महाराणा प्रताप के सेवाभावीऔर स्वामीभक्ति का प्रतीक अश्व चेतक का नाम विश्वविख्यात है। अनेकों कवियों ने चेतक पर कविताएं लिखी हैं।
महाराणा प्रताप का सर्वाधिक प्रिय चेतक मूलत: अरबी नस्ल का घोड़ा था। जिसे रियासतकाल में अरब के व्यापारी मेवाड़ लेकर आए थे। चेतक की विशेषताओं में उसकी स्वामीभक्ति, वीरता, निडरता, उनकी कद काठी,मांसल कसी हुर्इ देह, दौड़ने में विद्युत गति, लंबी छलांग लगाने का अभ्यासी, गर्दन पर बाल, मजबूत खुर और चपल आंखें थी।
हल्दीघाटी के दर्रे के नाले को लांघना एवं इससे पूर्व मुंह पर लगी सूंड में तलवार बांधकर मानसिंह के हाथी के मस्तक पर अपने पैर टिका देना चेतक की निडरता की द्योतक है। युद्ध के दौरान अपना एक पैर गंवा चुकेचेटक ने अपने स्वामी को दुश्मनों से बचाने के लिए हल्दीघाटी के सबसे बड़े नाले के ऊपर से महज तीन पैरों के बल पर छलांग लगार्इ और दूसरे छोर पर ले गया जबकि दुश्मनों के हष्ट-पुष्ट घोड़े मुंह ताकते रह गए।
हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक ने स्वामीभक्ति का अपूर्व उदाहरण देते हुए अपने प्राण त्याग दिए। चेतक की याद में हल्दीघाटी में आज भी वह चबूतरा बना हुआ है जहां वह वीरगति को प्राप्त हुआ था।
भीषण आंधी-तूफानों में चेतक की टापें नहीं रूकी।
लाखों नंगी तलवारों से मेवाड़ी पगड़ी नहीं झुकी।।

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भारत में कई सदियों पहले एक किताब- (#मेरुतुंगाचार्य_रचित_प्रबन्ध_चिन्तामणि) आई थी जिसमें महान लोगों के बारे में कई हस्तलिखित कहानियाँ थी। कोई कहता है किताब १३१० के दशक में आई तो कोई उसे १३६० के दशक का मानता है, १३१० वाले ज़्यादा लोग हैं। खैर मुद्दा वो नहीं है, किताब का १४ वीं सदी का होना ही काफी है। उसमें राजा भोज पर भी कई कहानिया है जिसमें से एक ये है, जिसे थोड़ा ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए -
एक रात अचानक आँख खुल जाने से राजा भोज ने देखा कि चाँदनी के छिटकने से बड़ा ही सुहावना समय हो रहा है, और सामने ही आकाश में स्थित चन्द्रमा देखने वाले के मन मे आल्हाद उत्पन्न कर रहा है। यह देख राजा की आँखें उस तरफ अटक गई और थोड़ी देर में उन्होने यह श्लोकार्ध पढ़ा -
यदेतइन्द्रान्तर्जलदलवलीलां प्रकुरुते।
तदाचष्टे लेाकः शशक इति नो सां प्रति यथा॥
अर्थात् - "चाँद के भीतर जो यह बादल का टुकड़ा सा दिखाई देता है लोग उसे शशक (खरगोश) कहते हैं। परन्तु मैं ऐसा नहीं समझता।"
संयोग से इसके पहले ही एक विद्वान् चोर राज महल मे घुस आया था और राजा के जाग जाने के कारण एक तरफ छिपा बैठा था।
जब भोज ने दो तीन वार इसी श्लोकार्ध को पढ़ा और अगला श्लोकार्ध उनके मुँह से न निकला तब उस चोर से चुप न रहा गया और उसने आगे का श्लोकार्ध कह कर उस श्लोक की पूर्ति इस प्रकार कर दी-
अहं त्विन्दु मन्ये त्वरिविरहाक्रान्ततरुणो।
कटाक्षोल्कापातव्रणशतकलङ्काङ्किततनुम्॥
अर्थात् - "मै तो समझता हूं कि तुम्हारे शत्रुओ की विरहिणी स्त्रियो के कटाक्ष रूपी उल्काओं के पड़ने से चन्द्रमा के शरीर में सैकड़ों घाव हो गए हैं और ये उसी के दाग़ हैं।"
अपने पकड़े जाने की परवाह न करने वाले उस चोर के चमत्कार पूर्ण कथन को सुनकर भोज बहुत खुश हुये और सावधानी के तौर पर उस चोर को प्रातःकाल तक के लिये एक कोठरी मे बंद करवा दिया। परंतु उस समय विद्वता की पूछ परख ज्यादा थी सो अगले दिन प्रातः उसे भारी पुरस्कार देकर विदा किया गया।
लगभग 250 साल के लंबे अंतराल के बाद, गेलेलियों ने ३० नवंबर सन १६०९ को पहली बार टेलिस्कोप से चंद्रमा देखा और अपनी डायरी में नोट किया कि, "चंद्रमा की सतह चिकनी नहीं है जैसी कि मानी जाती थी (क्योंकि केवल आंखो से वह ऐसी ही दिखती है), बल्कि असमतल और ऊबड़-खाबड़ है।" वहाँ उन्हे पहाड़ियाँ और गढ़हों जैसी रचनाएँ नज़र आई थी। उन्होने टेलिस्कोप से खुद के देखे चंद्रमा एक स्केच भी अपनी डायरी में बनाया।
कहानी का सार बस इतना है कि जिस समय चर्च यह मानता था कि रात का आसमान एक काली चादर है, जिसमें छेद हो गए और उसमे से स्वर्ग का प्रकाश तारों के रूप में दिख रहा है, उस समय भारत के एक चोट्टे को भी ये पता था कि चंद्रमा की सतह समतल नहीं है और उस पर जो दाग हैं वो उल्काओं के गिरने से बने हैं। बात खतम।
अब ये अलग बात है कि स्वयंभू वामपंथी इतिहासकारों, सेक्युलरता के घातक रोग से पीड़ित लिबरलों, और खुद पर ही शर्मिंदा कुछ भारतीय गोरों को यह बात आज भी नहीं पता, क्योंकि ना तो उन्हे इतिहास का अध्ययन करना आता है और ना ही उनमें इतनी क्षमता ही है।

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यह जो फोटो आप लोग देख रहे हैं यह दिल्ली में स्थित लाल किले की है और यह जो पानी आया हुआ है यह यमुना नदी का पानी है।
लाल किले को जो 40 साल से देख रहे हैं वो देखें पहले के दृश्य और आज के दृश्य में कितना अंतर आ चुका है।
दूसरी तस्वीर इमेजिन है जब पहले नदी को आजादी थी विचरण करने की। तो लगभग हर साल नदी कोडिया पुल के नीचे से होकर जाती थी। बस, कार के बजाय नाव का रास्ता था ये।
परंतु दिल्ली के रास्ते विशाल बनाने के क्रम में नदी को अंदर ही बांध दिया है, आउटर रिंग रोड को सुरक्षित करने के लिए। पर नदी तो नदी है , अपना रास्ता ढूंढकर ही मानेगी।
कुदरत को बांधना कोई सभ्यता नही है। कुदरत के साथ सहस्तितव से जियो न कि कुदरत को गुलाम बनाकर।

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