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भारत 'विचारक' नहीं पैदा किया।
विचार कि शून्यता ही! भारत का चिंतन है।
ध्यान , योग, तपस्या के मूल में विचार शून्य होना ही है।
विचारों से सब कुछ समझा नहीं जा सकता।
बहुत से कारण , अकारण है।
हम कारण ही खोजते खोजते, तनाव -द्वंद्व में चले जाते है।
वर्तमान समय कि प्रमुख समस्या यह है कि , मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ ?
इस प्रश्न के पीछे मनुष्य ऐसा पड़ा कि, ऋषियों ने इसके उत्तर में कह दिया यह 'प्रारब्ध' है।
वास्तव में प्रारब्ध भी वही अकारण ही है।
जो कुछ भी घटित हो रहा है। उसके कारणों को खोजना ही विचार है। विचार ही सारे जाल बुन रहा है। ऐसे कारणों को पैदा कर रहा है, जो असित्व में है ही नहीं।
एक अवसादग्रस्त प्रेमी को घँटों समझाने के बाद भी, उसका प्रश्न बना रहा।
उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया।
विचार से कारण, कारण से तनाव, तनाव से चिंता, अनिद्रा, रोग।
यह प्रक्रिया चलती रहती है।
सामान्य व्यक्ति के लिये तो विचार, कारण से बचने के लिये
' स्वीकार ' कर लेना सर्वोत्तम मार्ग है।
आध्यात्मिक व्यक्ति, विचार शून्यता के लिये ध्यान, योग , तपस्या करता है।
भारत विचारक नहीं, दार्शनिक पैदा किये। जिनकी चेतना, विचारों, कारणों के पार देख सकती थी।
जीवन मे परिपक्वता, शांति तभी आ सकती है।जब स्वीकार्यता विकसित हो जाय।।
उन लोगों का दुख बहुत गहरा है। जो विवश और मजबूर है।
यह विवशता किसी भी तरह की हो सकती है।
वह अपने ही स्वभाव से विवश है।
उनकी परिस्थिति ऐसी है जो कही नहीं जा सकती है।
उनकी बात कोई समझ नहीं सकता।
समाज , परंपरा, संस्कृति के कुछ ऐसे मूल्य है जो उनके विरुद्ध है।
अब ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिये ?
महाभारत में एक छोटा सा प्रसंग है। कुरुक्षेत्र में अभी अभी अर्जुन ने भीष्म को शरशय्या पर बाणों से लेटा दिया।
भार्गव, बृहस्पति, परसुराम जैसे ऋषियों के शिष्य गंगापुत्र के जीवनभर कि एक ही पीड़ा थी। अपने प्रतिज्ञा से वह विवश थे। बहुत सारे सही, गलत निर्णयों को उन्होंने स्वीकार कर किया जो नहीं करना चाहिये था।
उनकी न कोई सुनने वाला था, न ही समझने वाला था। वह जितने वीर थे, उतने ही विद्वान थे। भीष्म क्या थे, महाभारत के शांति पर्व से समझा जा सकता है।
हां तो भीष्म शरशय्या पर पड़े थे। उनको सभी प्रणाम कर रहे थे।
भगवान श्रीकृष्ण भी उनको प्रणाम करने आये।
भीष्म ने कहा, हे गोविंद आप तो मेरी विवशता समझते हैं।
ईश्वर ने एक वाक्य में उत्तर दिया। वही पूरा धर्म है।
भगवान बोले -
क्या मेरा जान लेना पर्याप्त नहीं है गंगापुत्र।
ईश्वर क्या है, मैं तो नहीं कह सकता। लेकिन वह बहुत अच्छे श्रोता है। उनसे कहिये अपनी बात।
अच्छी ही नहीं, बड़े से बड़ा अनर्थ, अपराध भी उनसे कहिये। उनसे बात करने की कला विकसित करें।
सारा संसार न सुने, वह ध्यान से सुनेंगे। उनका सुन ही लेना तो पर्याप्त है। उनका समझ लेना ही तो उद्धार है।
संसार के इस भीषण कुरुक्षेत्र में, पीताम्बर ओढ़े, वैजयंती माला पहने उस सारथी से अपनी बात कहिये। जो अंनत और अंतिम शक्ति है।
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