माँ से बड़ा कोई शब्द नही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की माँ हीराबेन जी का निधन बेहद दुःखद है।
ईश्वर दिवंगत आत्मा को श्री चरणों में स्थान प्रदान करें।
ॐ शान्ति
#विनम्र_श्रंद्धाजलि
Narendra Modi
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माँ से बड़ा कोई शब्द नही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की माँ हीराबेन जी का निधन बेहद दुःखद है।
ईश्वर दिवंगत आत्मा को श्री चरणों में स्थान प्रदान करें।
ॐ शान्ति
#विनम्र_श्रंद्धाजलि
Narendra Modi
कोई मरना नहीं चाहता।
आप कहेंगे, कुछ लोग आत्मघात कर लेते हैं। निश्चित कर लेते हैं। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि आत्मघात कौन लोग करते हैं! वे ही लोग, जिनका जीवन का मोह बहुत गहन होता है, डेंस। यह बहुत उलटी बात मालूम पड़ेगी।
एक आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है और वह स्त्री इनकार कर देती है, वह आत्महत्या कर लेता है। वह असल में यह कह रहा था कि जीऊंगा इस शर्त के साथ, यह स्त्री मिले; यह कंडीशन है मेरे जीने की। और अगर ऐसा जीना मुझे नहीं मिलता–उसका जीने का मोह इतना सघन है–कि अगर ऐसा जीवन मुझे नहीं मिलता, तो वह मर जाता है। वह मर रहा है सिर्फ जीवन के अतिमोह के कारण। कोई मरता नहीं है।
एक आदमी कहता है, महल रहेगा, धन रहेगा, इज्जत रहेगी, तो जीऊंगा; नहीं तो मर जाऊंगा। वह मरकर यह नहीं कह रहा है कि मृत्यु मुझे पसंद है। वह यह कह रहा है कि जैसा जीवन था, वह मुझे नापसंद था। जैसा जीना चाहता था, वैसे जीने की आकांक्षा मेरी पूरी नहीं हो पाती थी। वह मृत्यु को स्वीकार कर रहा है, ईश्वर के प्रति एक गहरी शिकायत की तरह। वह कह रहा है, सम्हालो अपना जीवन; मैं तो और गहन जीवन चाहता था। और भी, जैसी मेरी आकांक्षा थी, वैसा।
एक व्यक्ति किसी स्त्री को प्रेम करता है, वह मर जाती है। वह दूसरी स्त्री से विवाह करके जीने लगता है। इसका जीवन के प्रति ऐसी गहन शर्त नहीं है, जैसी उस आदमी की, जो मर जाता है।
जिनकी जीवन की गहन शर्तें हैं, वे कभी-कभी आत्महत्या करते हुए देखे जाते हैं। और कई बार आत्महत्या इसलिए भी आदमी करता देखा जाता है कि शायद मरने के बाद इससे बेहतर जीवन मिल जाए। वह भी जीवन की आकांक्षा है। वह भी बेहतर जीवन की खोज है। वह भी मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। वह इस आशा में की गई घटना है कि शायद इस जीवन से बेहतर जीवन मिल जाए। अगर बेहतर जीवन मिलता हो, तो आदमी मरने को भी तैयार है। मृत्यु के प्रति उन्मुखता नहीं है; हो नहीं सकती। जीवन का मोह है।
महाभारत सूचक है। वह यह कह रहा है, युधिष्ठिर धर्मराज थे, एक महापंडित की तरह। धर्म उनके जीवन की जिज्ञासा न थी, ऊपर का आचरण था। शास्त्र अनुकूल चलने की परंपरा थी, इसलिए चले थे। लेकिन कोई जीवन की क्रांति न थी। धर्मराज थे, फिर भी जुआ खेल सकते थे, पत्नी को दांव पर लगा सकते थे। पंडित थे, ज्ञानी नहीं थे। धर्म क्या कहता है, यह सब जानते थे, लेकिन यह धर्म की उदभावना अपने ही प्राणों से न हुई थी। सज्जन थे, धार्मिक न थे। इसलिए उनको कोई अड़चन न हुई।
पंडित लड़ सकता है। उसको कोई अड़चन नहीं है। पंडित कभी धर्म को जीवन का हिस्सा नहीं मानता, बुद्धि का हिस्सा मानता है। अगर किसी को शास्त्र के संबंध में कोई अड़चन होती, तो युधिष्ठिर हल कर देते। लेकिन जीवन की अड़चन तो वे खुद ही हल नहीं कर सकते थे। वह प्रश्न भी उन्हें न उठा।
प्रश्न उठा अर्जुन को, जिसको धार्मिक कहने का कोई भी कारण नहीं है। न तो वह कोई धर्मज्ञाता था, न कोई धर्मराज था। जीवनभर युद्ध ही किया था, एक शुद्ध क्षत्रिय था, अहंकारी था, अहंकार को प्रखर त्वरा में जाना था, वही उसकी जीवन—सिद्धि थी। इसको कठिनाई आ गई!
अहंकार को जिसने जीया है, एक न एक दिन कठिनाई उसे आ जाएगी। एक दिन वह पाएगा कि अहंकार तो बड़ी दुर्गति में ले आया।
तो इसके हाथ शिथिल हो गए हैं। यह कहता है, अब मैं यह करना छोड्कर भाग जाना चाहता हूं। इसका करना असफल हो गया है। इसलिए न करने की बात इसको समझ में आ सकी। यह कर—करके देख लिया, फल कुछ पाया नहीं, फल यह है कि युद्ध हो रहा है। बोए थे बीज आशा में कि मधुर फल लगेंगे। हिंसा लगी, जहरीले फल आ गए। अगर ये ही फल हैं कृत्य के, तो अर्जुन कहता है, छोड़ता हूं सब, मैं संन्यस्त हो जाता हूं। मैं जाता हूं? मैं भाग जाता हूं। इसी से उसकी गढ़ जिज्ञासा उठी।
इसलिए मैं निरंतर कहता हुं, जिनके अहंकार परिपक्व नहीं हैं, वे समर्पण नहीं कर सकते। अहंकार चाहिए पहले पका हुआ, तभी समर्पण हो सकता है। कच्चा, अनपका, अधूरा अहंकार है, कैसे समर्पण करोगे! कर भी दोगे, तो हो न पाएगा; अधूरा रहेगा। अनुभव ही न हुआ था।
यह अर्जुन पक गया था। क्षत्रिय यानी अहंकार। और फिर क्षत्रियों में अर्जुन, अहंकार का गौरीशंकर। वह कहता है, मुझे जाने दो। कृष्ण ने इसलिए उसे जो संदेश दिया, वह बडा अनूठा है। वह कह रहा है कि मुझे जाने दो, मैं छोड़ दूं सब। लेकिन कृष्ण जानते हैं, वह इतना गहरा क्षत्रिय है अर्जुन कि यह छोड़ना भी कृत्य ही है, यह भी कर्म है, त्याग भी कर्म है। वह कहता है, मैं छोड़ दूं। मैं अभी भी बचा है। लडूंगा तो मैं, छोडूंगा तो मैं। युद्ध बेकार हुआ, इसलिए मैं त्याग करता हूं। लेकिन मैं त्याग के भीतर भी बचेगा। कृष्ण जानते हैं, यह जंगल भागकर संन्यासी हो जाएगा, तो भी अहंकार से बैठा रहेगा अड़ा हुआ। यह संन्यासी हो नहीं सकता। यह इतना आसान नहीं है।
संन्यास बड़ी गढ़ घटना है, आसान नहीं है, बड़ी नाजुक है, तलवार की धार पर चलना है। इतना सरल होता कि भाग गए, संन्यासी हो गए, ‘तब तो संन्यास में और संसार में बस जरा—सी दौड़ का ही नाता है, कि छोड़ दी दुकान, भाग गए; मंदिर में बैठ गए, संन्यासी हो गए। तो यह तो ऐसा हुआ कि जैसे संसार बाहर है, भीतर नहीं है।
संसार भीतर है और अर्जुन की दृष्टि में है। इसलिए कृष्ण ने कहा कि ऐसे छोड़ने से कुछ न होगा, असली छोड़ना तो वह है कि तू कर भी और जान कि नहीं करता है। ऐसे कर कि कर्ता का भाव पैदा न हो, वही संन्यास है। तू परमात्मा को करने दे, तू बीच से हट जा। अगर तू सच में ही समझ गया है कि करने का फल दुखद है, कर्ता का भाव पीड़ा लाता है, हिंसा लाता है, अगर तू ठीक से समझ गया, तो अब यह संन्यास की बात मत उठा। क्योंकि तब संन्यास भी तेरे लिए करना ही होगा, तब तू संन्यासी हो जा, कर मत। यही फर्क है। कोशिश मत कर, हो जा। चेष्टा मत कर, बस हो जा।
अर्जुन यही पूछता है कि यह कैसे होगा! यह कैसे होगा! संदेह उठाता है। और कृष्ण समझाए चले जाते हैं। इस समझाने में ही अर्जुन की पर्त—पर्त टूटती चली जाती है। एक—एक पाया कृष्ण खींचते जाते हैं। आखिरी घड़ी आती है, जहां अर्जुन कहता है, मेरे सारे संदेह गिर गए; मैं नि:संशय हुआ हूं; तुमने मुझे जगा दिया। फिर वह युद्ध करता है; फिर वह भागता नहीं। फिर भागना कहां!
फिर भागना किससे! फिर वह परमात्मा के चरणों में अपने को छोड़ देता है, वह निमित्त हो जाता है। वह कहता है, अब तुम जो करवाओ। लडवाओ, लडूंगा। भगाओ, भाग्ता। अपनी तरफ से कुछ न करूंगा। अपने को हटा लेता है।
यह जो अकर्ता भाव से किया हुआ कर्म है, यही मुक्ति है। ऐसे कर्म की रेखा किसी पर छूटती नहीं, कोई बंधन नहीं बनता। करते हुए मुक्त हो जाता है व्यक्ति। गुजरी नदी से, और पैर पानी को नहीं छूते। बाजार में खड़े रहो, और बाजार का धुआ तुम्हें स्पर्श भी नहीं करता।
ओशो - गीता दर्शन – भाग - 8, - अध्याय—18
(प्रवचन—चौथा) - सदगुरू की खोज
रामायण , महाभारत इतिहास के साथ धार्मिक ग्रँथ है।
गीता सर्वप्रिय ईश्वर कि वाणी है।
यह ग्रँथ भगवान राम, कृष्ण के चरित और निर्देशन पर लिखे गये है।
इसमें युद्ध है।
युद्ध का अर्थ राजनीति और कुटिनीति है।
भारत का वह कौन सा काल है। जब धर्म का हस्तक्षेप राजनीति में नहीं है।
धर्मविहीन राजनीति भ्र्ष्ट और दिशाहीन होती है।
लेकिन आधुनिक समय में राजनीति को सबसे निम्नतर बनाया गया है। उसके शुद्धिकरण के लिये यह तर्क दिया गया कि यह धर्मनिरपेक्ष होनी चाहिये।
यह असंभव सी परिकल्पना को व्यवहारिक बनाकर, राजनीति को अधार्मिक किया गया है।
अधार्मिक होना, भारत जैसी प्राचीन संस्कृति के लिये अपमान जैसा है। जिसका पूरा जीवनकाल धर्म पर चला हो।
यह अवधारणा इसलिये स्थापित हो गई। क्योंकि हम इसका प्रतिवाद नहीं कर पाये कि
धर्म ! मजहब , रिलीजन नहीं है।
धर्म का उद्देश्य यह नहीं है कि कोई आसमान में बैठा उसके पास जाकर निर्णय लेना है।
धर्म ! जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्तित्व निर्माण कि प्रक्रिया है। ऐसा व्यक्तित्व जो सूक्ष्म जीव से लेकर असीमित प्रकृति कि रक्षा कर सके।
वह राजनीति जो इस राष्ट्र का भविष्य तय करती है। वह धर्महीन हो जायेगी तो इस राष्ट्र का भविष्य क्या होगा। जिसके परिवारिक, भ्र्ष्टतम स्वरूप से हम लोग परिचित है।
धर्म, वह नहीं है जिसे मार्क्स से अफीम कहा, न धर्म वह है जिससे सत्ता प्राप्त की जा रही है या गिराई जा रही है।
धर्मनिरपेक्ष होना निष्पक्ष होना नहीं है। यदि ऐसा होता तो आज इस देश में बहुमत में होते हुये हिंदू संघर्ष न कर रहे होते।
शंकरशरण ने अपने लेख में मंदिरों के टैक्स कि तुलना जजिया कर से किया था। लाखो करोड़ रुपये मंदिरों से टैक्स वसूले जाते है। लेकिन उन्हें अपने शिक्षा केन्द्र खोलने की अनुमति नहीं है।