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बारीन्द्र कुमार घोष या बरीन घोष जिन्होंने 11वर्ष तक अंडमान की जेल में घोर यातना सही और हर यातना के बाद मुंह से निकलता था “वंदेमातरम्”। यह वो नाम हैं जिनसे यकीनन आप परिचित नही होंगे या बहुत कम ही जानते होंगे।
5 जनवरी 1880 बारीन्द्र कुमार घोष भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी और पत्रकार थे। वह बंगाल के एक क्रांतिकारी संगठन जुगंतार के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा देवगढ़ में स्कूल में पूरी हुई। बाद में 1901 में प्रवेश परीक्षा पास की और पटना कॉलेज में दाखिला लिया। उन्होंने अपने बड़े भाई मनमोहन घोष के साथ ढाका में कुछ समय गुजारा। बड़ौदा में उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया। साथ ही उन्होंने इतिहास और राजनीति में पर्याप्त अध्ययन किया था। इसी समय अपने बड़े भाई अरविन्द घोष से प्रभावित हुए, जिसके कारण उनके मन में क्रांतिकारी विचारों ने जन्म लिया और वे क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे।
1902 में बारीन्द्र कुमार घोष कोलकाता लौट आए और जतिंद्रनाथ बनर्जी (बाघा जतिन) के सहयोग से ‘युगांतर’ नामक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। 1906 में स्वदेशी आंदोलन के दिनों में उन्होंने युगांतर नाम से एक बंगाली साप्ताहिक और एक क्रांतिकारी पत्रिका प्रकाशित करना शुरू कर दिया। युगांतर का गठन अनुशीलन समिति के आंतरिक चक्र से किया गया और इसकी क्रांतिकारी गतिविधियों को शुरू किया। उनके इस कार्य और बंगाल में बढ़ती युगांतर की लोकप्रियता ने ब्रिटिश सरकार को उन पर शक होने लगा। 1907 में, उन्होंने बाघा जतिन और कुछ युवा क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं के साथ माणिकतला नामक स्थान पर उन्होंने बाम बनाने और हथियारों और गोला-बारूद इकट्ठा करना शुरू कर दिया, ताकि अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर सके।
उनके संगठन के सदस्य खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या का प्रयास किया लेकिन वे असफल हो गये। इसके बाद पुलिस ने उन पर छानबीन शुरू की और जांच के माध्यम से 2 मई, 1908 को बारीन्द्र कुमार घोष और उनके कई साथियों को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
बरीन घोष को अलीपुर बम कांड के मुकदमे में मौत की सजा सुनाई गई थी। बाद में यह सजा आजीवन कारावास में बदल दी गई और 1909 में अंडमान के सेलुलर जेल में भेज दिया गया। जहां पर सजा काटना मौत से भी ज्यादा भयानक था क्योंकि यह जेल अपनी क्रूरूर यातना के लिए जानी जाती है। 11 साल तक यहाँ सजा काटने के बाद 1920 में उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके बाद वह कलकत्ता आ गए और वहीं पर प्रिंटिंग हाउस खोल लिया और पत्रकारिता का कार्य करने लगे।