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साभार डॉ Ravishankar Singh ...... जब जीवन में संकट आये, वह कितना बड़ा हो, किसी चीज से सम्बंधित हो।
अर्थ, प्रेम , परिवार, कुछ भी हो।
मेरी सलाह यही रहती है।
" रुक जाइये "
बिल्कुल रुकिये।
आप रुके नहीं कि ब्रह्मांड कि ऊर्जा आपके लिये काम करने लगती है।
रास्ते निकलने लगते है।
गीता में एक बात जो कही गई है कि कर्ता का भाव छोड़ो।
उसका बहुत व्यापक अर्थ है।
हम लोग यह सोचते है कि मैं नहीं करूँगा तो बिगड़ जायेगा।
ऐसा नहीं है! आप कर्ता बने है तो बिगड़ रहा है।
इसको कई तरह से व्याखित किया जा सकता है।
ज्योतिष कहती है कि ग्रहों की स्थिती ठीक नहीं है।
इसका अर्थ है कि आपको प्रतीक्षा करनी चाहिये।
रुक जाना, धैर्य रखना, प्रतीक्षा करना एक ही बात है।
रुकने के बाद, जो विचार का चक्र है, वह टूटता है। फिर बुद्धि नये विकल्पों के साथ समाधान लेकर आती है।
इसका प्रभाव इतना है कि जैसे कोई व्यक्ति 10 बजे आपको फोन किया कि मैं आत्महत्या करने जा रहा हूँ।
आप उसको इतना समझा ले कि आज मत करो, कल कर लेना तो 99.9% चांस है कि अब वह आत्महत्या कभी नहीं करेगा।
पूरी बात यही है कि रुक जाइये।
जन्म , मृत्यु, लाभ, हानि, विरह , वेदना जो भी है ! कुछ न करके आप समाधान पा जायेंगे।
तुम कर्ता मत बनो ! वास्तव में वह कह रहे है। करना तो तुम्हीं को है, लेकिन तुम यह समझो कि तुम कर नहीं सकते।
हम विषम से विषम परिस्थितियों में भी सहज रहे।।
दिव्य दृष्टि .... Dr Ravishankar Singh
कोई हजार वर्ष तपस्या करे, यदि उसका दृष्टिकोण न बदले तो वह वैसे ही रहेगा। जैसा था।
वही उत्तेजना, क्रोध , काम , मोह , पीड़ा , दुख सब कुछ वैसे ही रहेगा।
कुंभ मेले में एक बार शंकराचार्यो में इस पर विवाद हो गया कि कौन गंगा में पहले डुबकी लगायेगा।
प्रशासन को पसीना आ गया, एक का कहना था, उनके पास दो पद है।
सब कुछ वैसे ही यथावत है। बस फिसलन कि देर है, लुढ़क कर कोई भी गिर सकता है।
दृष्टिकोण नहीं बदला है।
अर्जुन , कहता है।
यदि जीवन का उद्धार ही उद्देश्य है। वह ज्ञान , सन्यास से मिल सकता है। मैं भिक्षा मांगकर जीवन निर्वाह कर सकता हूँ। अपने लोगों के वध के पाप से तो बच जाऊँगा। आप स्वधर्म को भी तो महत्व देते है। मैं अपना उद्धार कर लूँगा।
फिर युद्ध कि क्या आवश्यकता है ?
अब अर्जुन के प्रश्न में गलत क्या है ! वह ठीक ही तो कह रहा है।
भगवान यह जानते भी है कि यह ठीक कह रहा है।
लेकिन उनको पता है कि अर्जुन का दृष्टिकोण नहीं बदला है।
यदि दृष्टिकोण ठीक होता तो वह कह देते, ठीक है जाओ।
यह कि मैं सन्यासी बन सकता हूँ,
यह कि मैं योद्धा बन सकता हूँ,
यह कि मैं किसी को मार सकता हूँ,
यह कि मैं विजय पा सकता हूँ,
यह कि कुछ मेरे अपने है,
यह कि मैं कुछ हूँ।
यह सब कुछ, धर्म कि दृष्टि में गलत दृष्टिकोण है।
इन सब के साथ अर्जुन हिमालय भी चला जाय, तो वही रहेगा जो कुरुक्षेत्र में है।
पूरी गीता, अर्जुन सहित हर व्यक्ति के दृष्टिकोण को बदल रही है।
यह बात बहुत मनोवैज्ञानिक है कि आपकी हर प्रतिक्रिया, इससे तय होती है कि आपका दृष्टिकोण क्या है।
किसी भी व्यक्ति पर क्रोध आना, दुखी होना, प्रेम होना ! हवा में नहीं है। यह हमारा दृष्टिकोण तय करता है।
प्रसिद्ध पुस्तक 'Man's search for meaning' के लेखक विक्टर ई फ्रैंकलिन जो एक मनोवैज्ञानिक थे। हिटलर के कैदियों पर काम किया।
उन्होंने लिखा है -
व्यक्ति का जीवन इससे निर्धारित होता है कि कष्ट , पीड़ा, विषम परिस्थितियों में कैसा दृष्टिकोण विकसित करता है।
मुझे पता नहीं है कि फ्रैंकलिन ने गीता पढ़ी थी या नहीं।
पहला श्लोक ही है।
भगवान बोलते है -
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितां।
इस विषम परिस्थितियों में तुम्हारे ऐसे कायरतापूर्ण विचार है।
यदि अर्जुन के विचार गलत होते तो वह विषम परिस्थितियों की बात न करते।
यह दृष्टिकोण के खोखलेपन का विषय है।
ऐसे लोग जब सन्यासी बनेंगे तो पद के लिये लालायित रहेंगें, जब पद पर रहेंगें तो सन्यासी बनने के लिये।
गीता,मन कि परत खोलते हुये आगे बढ़ती है। जिससे एक स्थाई दृष्टिकोण विकसित हो। हम विषम से विषम परिस्थितियों में भी सहज रहे।।
माँ से ज्यादा इस विकट परिस्थिति में भी भरोसा माँ का ही है,,
जब भी ये तस्वीर सामने आती है मन तकलीफ से भर जाता है । यह तस्वीर प्रकृति के क्रूरतम सत्य में से एक है। पूरे हृदय में करुण रस का संचार करने की अद्भुत शक्ति है इसमें। दुःख ही इसका एकमात्र स्थाई भाव है। हृदयवादी कोई भी व्यक्ति इसे देखने के पश्चात ठिठक जाएगा।
जब पहली बार मैंने इस तस्वीर को देखा, तो बस ऐसे देखता ही रहा कुछ देर तक। बार-बार मेरी नजरें उस प्यारे छोटे बंदर के चेहरे पर जाकर टिक जा रही थीं। यह उत्सुकता बार-बार बनी रहे की इसके बाद का दृश्य क्या रहा होगा! प्रतिपल हृदय से यही प्रार्थना निकल रही थी, काश यह बच्चा बच जाए। ईश्वर कुछ चमत्कार कर दें पता नही आगे क्या हुआ होगा, इस तस्वीर में, बच्चे के मुख पर दहशत और मासूमियत के मिश्रित भाव हैं, खून की एक बूंद बच्चे के पैर पर गिरी है। उसकी अपनी माँ पर पकड़ तीव्र है। इस विकट परिस्थिति में भी उसे अपनी माँ से ज्यादा भरोसेमंद कोई नहीं लग रहा।
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2 शादी और पंडित-मौलवी के चक्कर के बाद भी नहीं हुआ बेटा, पत्नी को तोहफा देने के लिए चोरी किया भिखारी का बच्चा
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