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नाना पाटेकर के पिता के आख़िरी दिनों में नाना के घर की माली हालत इतनी ख़राब थी कि उनके दवाइयों के लिये भी नाना को ख़ूब मशक्कत करनी पड़ती थी। नाना तब जेब्रा क्रॉसिंग और फ़िल्मी पोस्टर की पेंटिंग का काम किया करते थे, साथ ही वे थियेटर में भी सक्रिय थे।

अपने एक इंटरव्यू में नाना पाटेकर ने बताया था कि नाटक 'महासागर' के शो के दौरान उनके पिताजी की तबीयत काफी ख़राब थी, लेकिन पैसों के इंतज़ाम के लिए नाटक में जाना ज़रूरी था। उस दिन नाटक के तीन शो रखे गए थे। तभी अचानक मालूम चला कि उनके पिता अब नहीं रहे। नाटक को कैंसिल करने की बात हुई, लेकिन इससे सबका नुकसान होता इसलिए नाना ने ख़ुद ही कहा कि नाटक ज़रूर होगा।

सबसे ख़ास बात कि एक शो को पूरा करने के बाद नाना ने अपने साथी कलाकारों के साथ अस्पताल जाकर पिता का अंतिम संस्कार किया और अंतिम संस्कार के बाद वापस आकर 'महासागर' के दो और शोज़ पूरे किए।

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जाने-माने राइटर व ऐक्टर कादर ख़ान एक ज़माने के मशहूर विलेन थे और कभी परदे पर दहशत का दूसरा नाम समझे जाते थे, लेकिन 90 के दशक तक आते-आते उन्होंने कॉमेडी व कैरेक्टर रोल करने शुरू कर दिये और विलेन की इमेज को पूरी तरह से तोड़ दिया। दरअसल कादर ख़ान ने अपनी ख़तरनाक विलेन की इमेज तोड़कर कॉमिक किरदार करने का फैसला अपने परिवार और अपने स्टूडेंट्स की वजह से लिया था।
कादर खान जब फिल्मों में विलेन का किरदार करते थे तो उनके बेटों को स्कूल में अन्य स्टूडेंट्स चिढ़ाया करते थे। यहां तक कि एक बार उनके बेटे सरफराज का इस चक्कर में झगड़ा भी हो गया था। इधर कादर खान की पत्नी भी उन्हें फिल्मों में विलेन बनने से रोकने लगी थीं। इतना ही नहीं उनके कॉलेज के स्टूडेंट्स भी उन्हें विलेन का रोल न करने के सलाह दिया करते थे।
यहाँ हम बता दें कि फिल्मों में करियर बनाने के पहले, कादर खान 'एमएच सैबू सिद्दिक कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग' में सिविल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे। इन चौतरफा दबावों की वज़ह से ही कादर खान ने विलेन के किरदार लेने धीरे-धीरे छोड़ दिये थे।

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