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ईश्वरचंद्र विद्यासागर अपने मित्र गिरीशचंद्र विद्यारत्न के साथ बंगाल के कालना गांव जा रहे थे। दोनों मित्र बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे, तभी मार्ग में उनकी दृष्टि लेटे हुए एक मजदूर पर पड़ी।
उसे हैजा हो गया था। वह बड़ी तकलीफ में था। बुरी तरह कराह रहा था। उसकी भारी गठरी एक ओर लुढ़की पड़ी थी। उसके मैले कपड़ों से बदबू आ रही थी।
लोग उसकी ओर से मुंह फेरकर वहां से तेजी से निकल जा रहे थे। कोई भी उसकी सहायता के लिए आगे नहीं आ रहा था। बेचारा मजदूर उठने में भी असमर्थ था।
यह दृश्य देखकर संवेदनशील और दयालु ईश्वरचंद्र विद्यासागर बोले ‘आज हमारा सौभाग्य है।’ मित्र गिरीशचंद्र विद्यारत्न ने पूछा, ‘कैसा सौभाग्य?’
विद्यासागर ने कहा, ‘किसी दीन-दुखी की सेवा का अवसर प्राप्त हो, इससे बढ़कर सौभाग्य क्या होगा। यह बेचारा यहां मार्ग में पड़ा है। इसका कोई स्वजन समीप होता तो क्या इसको इसी प्रकार पड़े रहने देता? हम दोनों इस समय इसके स्वजन बन सकते हैं।
हमें इसकी सहायता करनी चाहिए।’ हैजे जैसे रोग में स्वजन भी दूर भागते हैं। ऐसे में एक दरिद्र, मैले-कुचले दीन मजदूर का उस समय स्वजन बनना सामान्य बात नहीं थी।
पर ईश्वरचंद्र विद्यासागर तो थे ही दया के सागर। उनके मित्र विद्यारत्न भी उनसे पीछे कैसे रहते। विद्यासागर ने उस मजदूर को पीठ पर लादा और विद्यारत्न ने उसकी भारी गठरी सिर पर उठाई। दोनों भारी वजन लादे कालना पहुंचे।
उन्होंने मजदूर के लिए रहने की व्यवस्था की। एक वैद्यजी को चिकित्सा के लिए बुलाया। दोनों ने पूरी तन्मयता से उस बीमार मजदूर की सेवा की।
जब मजदूर दो-तीन दिन में उठने-बैठने लायक हो गया, तब कुछ पैसे देकर उसे वहां से विदा किया। मजदूर ने तो दोनों का धन्यवाद किया ही, लेकिन जिसने भी यह दृश्य देखा उसने उन दोनों की इंसानियत और सेवा भावना की प्रशंसा की।

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कच्छ के महाराव खेंगार जी तृतीय जाडेजा द्वारा बनवाया गया - विजय विलास पैलेस (कच्छ - गुजरात) चंद्रवंशी क्षत्रिय खंगार राजपूत

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जन्मदिन की शुभकामनाएं - कैप्टन कूल ( MS धोनी ) !

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मेवाड़ के महाराणा सज्जनसिंह जी (1874-84) सुयोग्य कवि भी थे। एक दिन महाराणा सज्जनसिंह जी बारहट किशनसिंह से बूंदी के इतिहास का ग्रंथ वंश भास्कर सुन रहे थे
तब किशनसिंह पढ़ते-पढ़ते रुक गए और बोले कि यहां चरण के कुछ अक्षर रह गए हैं, केवल इतना ही पाठ है कि "पहुमान रुक्कीय अक्क ढक्कीय ......... बिच्छुरे"
तब महाराणा कुछ सोचकर बोले "पहुमान रुक्कीय अक्क ढक्कीय चक्क चक्कीय बिच्छुरे..... ऐसा पाठ होगा इस चरण का"
(इतिहासकार ओझा जी को इस ग्रंथ की दूसरी प्रति जब प्राप्त हुई तब उसमें ठीक महाराणा द्वारा बतलाया हुआ पाठ ही मिला)

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