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हस्तिनापुर में राजनीतिक संकट पैदा हो गया तो भीष्म वेदव्यास को लेने के लिये उनके आश्रम गये।
भगवान वेदव्यास ने कहा कि आपके रथ पर चलना उचित नहीं है, आप चलें हम आ रहे हैं।
विश्वामित्र, वशिष्ठ जैसे ऋषि जिनका रघुवंशियों में
इतना आदर था, वह भी अपनी कुटिया में रहते थे।
चाणक्य, विदुर जैसे प्रभावशाली विद्वान मंत्री
भी अपने आश्रमों में रहते थे।
हमारे गोस्वामी तुलसीदास जी ने अकबर का प्रस्ताव
ठुकरा दिया था, यह कहते हुए कि "हमारे राजा तो राम हैं।"
द्रोपदी विदुषी नारी थीं, हस्तिनापुर की सभा में धृतराष्ट्र से कहती हैं.... "लोभ और धर्म का बैर है राजन।"
धर्म राजप्रासादों, धन, वैभव से सैदव दूर रहा है। राजकुमारों को भी धर्मज्ञ बनने के लिये राजप्रासादों को त्यागना पड़ा।
सनातन धर्म, इब्राहिमिक मजहब नहीं है। जहां पोप, खलीफा, पादरी जैसे लोग सत्ता प्राप्ति के संघर्ष में सम्मिलित होते हैं।
आश्रम, गुरुकुल से निकले प्रभावशाली व्यक्तित्व सत्ता संभालते हैं। धर्म की शिक्षाएं उन्हें अनुशासित रखती हैं। उनके कर्तव्यों के प्रति उन्हें दृढ़ बनाती हैं।
इसलिये ऐसे उद्धरण देकर अपने धर्म की महिमा कम नहीं करनी चाहिये।
हम अलग हैं! न ही श्रेष्ठ हैं, और न ही कमतर हैं। इसका महत्व है।
अलग होने में आकर्षण है। यही अस्तित्व बनाये रखता है।

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