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आमेर का किला जयपुर
आमेर की स्थापना मूल रूप से ९६७ ई॰ में राजस्थान के चन्दा वंश के राजा एलान सिंह द्वारा की गयी थी।[16] वर्तमान आमेर दुर्ग जो दिखाई देता है वह आमेर के कछवाहा राजा मानसिंह के शासन में पुराने किले के अवशेषों पर बनाया गया है।[10][17] मानसिंह के बनवाये महल का अच्छा विस्तार उनके वंशज जय सिंह प्रथम द्वारा किया गया। अगले १५० वर्षों में कछवाहा राजपूत राजाओं द्वारा आमेर दुर्ग में बहुत से सुधार एवं प्रसार किये गए और अन्ततः सवाई जयसिंह द्वितीय के शासनकाल में १७२७ में इन्होंने अपनी राजधानी नवरचित जयपुर नगर में स्थानांतरित कर ली।
कछवाहाओं द्वारा आमेर का अधिग्रहण
पन्ना मीणा का कुण्ड या बावली।
इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार इस क्षेत्र को पहले खोगोंग नाम से जाना जाता था। तब यहाँ मीणा राजा रलुन सिंह जिसे एलान सिंह चन्दा भी कहा जाता था, का राज था। वह बहुत ही नेक एवं अच्छा राजा था। उसने एक असहाय एवं बेघर राजपूत माता और उसके पुत्र को शरण मांगने पर अपना लिया। कालान्तर में मीणा राजा ने उस बच्चे ढोला राय (दूल्हेराय) को बड़ा होने पर मीणा रजवाड़े के प्रतिनिधि स्वरूप दिल्ली भेजा। मीणा राजवंश के लोग सदा ही शस्त्रों से सज्जित रहा करते थे अतः उन पर आक्रमण करना व हराना सरल नहीं था। किन्तु वर्ष में केवल एक बार, दीवाली के दिन वे यहां बने एक कुण्ड में अपने शस्त्रों को उतार कर अलग रख देते थे एवं स्नान एवं पितृ-तर्पण किया करते थे। ये बात अति गुप्त रखी जाती थी, किन्तु ढोलाराय ने एक ढोल बजाने वाले को ये बात बता दी जो आगे अन्य राजपूतों में फ़ैल गयी। तब दीवाली के दिन घात लगाकर राजपूतों ने उन निहत्थे मीणाओं पर आक्रमण कर दिया एवं उस कुण्ड को मीणाओं की रक्तरंजित लाशों से भर दिया। [18] इस तरह खोगोंग पर आधिपत्य प्राप्त किया।[19] राजस्थान के इतिहास में कछवाहा राजपूतों के इस कार्य को अति हेय दृष्टि से देखा जाता है व अत्यधिक कायरतापूर्ण व शर्मनाक माना जाता है।[20] उस समय मीणा राजा पन्ना मीणा का शासन था, अतः इसे पन्ना मीणा की बावली कहा जाने लगा। यह बावड़ी आज भी मिलती है और २०० फ़ीट गहरी है तथा इसमें १८०० सीढियां है।
पहला राजपूत निर्माण राजा कांकिल देव ने १०३६ में आमेर के अपनी राजधानी बन जाने पर करवाया। यह आज के जयगढ़ दुर्ग के स्थान पर था। अधिकांश वर्तमान इमारतें राजा मान सिंह प्रथम (दिसम्बर २१, १५५० – जुलाई ६, १६१४ ई॰) के शासन में १६०० ई॰ के बाद बनवायी गयीं थीं। उनमें से कुछ प्रमुख इमारतें हैं आमेर महल का दीवान-ए-खास और अत्यधिक सुन्दरता से चित्रित किया हुआ गणेश पोल द्वार जिसका निर्माण मिर्ज़ा राजा जय सिंह प्रथम ने करवाया था।
वर्तमान आमेर महल को १६वीं शताब्दी के परार्ध में बनवाया गया जो वहां के शासकों के निवास के लिये पहले से ही बने प्रासाद का विस्तार स्वरूप था। यहां का पुराना प्रासाद, जिसे कादिमी महल कहा जाता है (प्राचीन का फारसी अनुवाद) भारत के प्राचीनतम विद्यमान महलों में से एक है। यह प्राचीन महल आमेर महल के पीछे की घाटी में बना हुआ है।
आमेर को मध्यकाल में ढूंढाड़ नाम से जाना जाता था (अर्थात पश्चिमी सीमा पर एक बलि-पर्वत) और यहां ११वीं शताब्दी से – अर्थात १०३७ से १७२७ ई॰ तक कछवाहा राजपूतों का शासन रहा, जब तक की उनकी राजधानी आमेर से नवनिर्मित जयपुर शहर में स्थानांतरित नहीं हो गयी। ] इसीलिये आमेर का इतिहास इन शासकों से अमिट रूप से जुड़ा हुआ है, क्योंकि इन्होंने यहां अपना साम्राज्य स्थापित किया था।
मीणाओं के समय के मध्यकाल के बहुत से निर्माण या तो ध्वंस कर दिये गए या उनके स्थान पर आज कोई अन्य निर्माण किया हुआ है। हालांकि १६वीं शताब्दी का आमेर दुर्ग एवं निहित महल परिसर जिसे राजपूत महाराजाओं ने बनवाया था, भली भांति संरक्षित है।
अन्य कथा
राजा रामचन्द्र के पुत्र कुश के वंशज शासक नरवर के सोढ़ा सिंह के पुत्र दुलहराय ने लगभग सन् ११३७ ई॰ में तत्कालीन रामगढ़ (ढूंढाड़) में मीणाओं को युद्ध में मात दी तथा बाद में दौसा के बड़गूजरों को पराजित कर कछवाहा वंश का राज्य स्थापित किया। तब उन्होंने रामगढ़ मे अपनी कुलदेवी जमुवाय माता का मन्दिर बनवाया। इनके पुत्र कांकिल देव ने सन् १२०७ में आमेर पर राज कर रहे मीणाओं को परास्त कर अपने राज्य में विलय कर लिया व उसे अपनी राजधानी बनाया। तभी से आमेर कछवाहों की राजधानी बना और नवनिर्मित नगर जयपुर के निर्माण तक बना रहा। इसी वंश के शासक पृथ्वीराज मेवाड़ के महाराणा सांगा के सामन्त थे जो खानवा के युद्ध में सांगा की ओर से लड़े थे। पृथ्वीराज स्वयं गलता के श्री वैष्णव संप्रदाय के संत कृष्णदास पयहारी के अनुयायी थे । इन्हीं के पुत्र सांगा ने सांगानेर कस्बा बनाया। चंद्रवंशी क्षत्रिय खंगार राजपूत

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#एशिया का एकमात्र किला जिसे आज तक कोई नहीं हरा सका...... #[7297] #bharatpur
यह कोई यूरोप, अमेरिका या रूस जैसे देशों की चित्र नहीं है यह हिन्दू ह्रदय सम्राट जैसे शब्दों से सम्मान पाने वाले वीर शिरोमणि योद्धा महाराजा दादा #सूरजमल जी का किला है लोहागढ़ (भरतपुर) के नाम से मशहूर यह हिंदुस्तान का एक मात्र "अजय दुर्ग किला" है इस किले को आज तक कोई नहीं जीत पाया...
राजपूत मराठे सिसोदिया सात सात राज्यो की सेनाओं से जिनकी संख्या 3 लाख थी और महाराजा सूरजमल के साथ 60 हजार सैनिक फिर उनको हराया था जयपुर में
कई बार मुगलों व अंग्रेजों ने इस किले पर आक्रमण किया पर हर बार मुँह की खानी पड़ी अंग्रेजों ने इस किले पर 13 बार आक्रमण किया परंतु हर बार हार का मुँह देखने के साथ साथ भारी नुकसान भी उठाना पड़ता था....
नकली व मनगढंत इतिहास को छोड़ो असली इतिहास को पहचानों घर घर तक इतिहास पंहुचाने की हम सभी की जिम्मेदारी है.....
ऐसे #अजय दुर्ग किले (लोहागढ़, भरतपुर, राजस्थान) को बारम्बार नमन..
जय हिन्दू ह्रदय सम्राट महाराजा सूरजमल की

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कुल्लू ब्यास नदी में राफ्टिंग पर रोक, पर्यटन विभाग ने जारी की अधिसूचना
कुल्लू दर्शन
ब्यास में जलस्तर बढ़ने के चलते प्रशासन ने आगामी आदेश तक रिवर राफ्टिंग पर रोक लगा दी है। इस संबंध में जिला पर्यटन विभाग ने अधिसूचना जारी कर दी है। विभाग का कहना है कि ब्यास नदी में पानी का जलस्तर काफी अधिक बढ़ गया है। इसके चलते जलस्तर कम होने तक राफ्टिंग बंद रखी जाएगी। इस संबंध में रिवर राफ्टिंग करवाने वाले संघों को भी सूचित कर दिया है। गौरतलब है कि कुल्लू जिले में रिवर राफ्टिंग का क्रेज सैलानियों में खूब देखने के मिलता है। कुल्लू में करीब 3000 इस कारोबार से जुड़े हैं। जिला पर्यटन विकास अधिकारी सुनैना शर्मा ने कहा कि ब्यास में स्थिति सामान्य होने पर गतिविधि शुरू हो सकेंगी।

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बुंदेलखंड में पीने के पानी का स्थान "घिनोची"
बुंदेलखंड में पीने के पानी को रखने का स्थान को घिनोची कहा जाता है। जिस पर कसैड़ी,गघरा और गुंडी में पानी भर कर रखा जाता है।
घिनोची जमीन से डेढ़-दो फ़ीट ऊंचा एक प्लेटफॉर्म होता है जो कि मिट्टी या लकड़ी का बना होता है। घिनोची में केवल पीने व भोजन बनने के पानी को रखा जाता है।
पोस्ट साभार-सोशल मीडिया

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