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'मारवाड़ के राणा प्रताप' स्वाभिमानी योद्धा राव चंद्रसेन जी राठौड़
राजपूताने का दुर्भाग्य रहा है कि महाराणा सांगा, महाराणा राजसिंह जी, राव चंद्रसेन जी जैसे महावीरों को विश्वासघातियों ने उस समय ज़हर दिया, जब वे मुग़लिय सत्ता से संघर्ष की चरम सीमा पर थे
राव चन्द्रसेन का जन्म 30 जुलाई, 1541 ई. को हुआ था। राव चन्द्रसेन के पिता का नाम राव मालदेव था। राव चन्द्रसेन जोधपुर, राजस्थान के राव मालदेव के छठे पुत्र थे। लेकिन फिर भी उन्हें मारवाड़ राज्य की सिवाना जागीर दे दी गयी थी, पर राव मालदेव ने उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी चुना था। राव मालदेव की मृत्यु के बाद राव चन्द्रसेन सिवाना से जोधपुर आये 1619 को जोधपुर की राजगद्दी पर बैठे।
चन्द्रसेन के जोधपुर की गद्दी पर बैठते ही उनके बड़े भाइयों राम और उदयसिंह ने राजगद्दी के लिए विद्रोह कर दिया। राम को चन्द्रसेन ने सैनिक कार्यवाही कर मेवाड़ के पहाड़ों में भगा दिया और उदयसिंह, जो उसके सहोदर थे, को फलौदी की जागीर देकर संतुष्ट कर दिया। राम ने अकबर से सहायता ली। अकबर की सेना मुग़ल सेनापति हुसैन कुली ख़ाँ के नेतृत्व में राम की सहायता के लिए जोधपुर पहुंची और जोधपुर के क़िले मेहरानगढ़ को घेर लिया। आठ महीनों के संघर्ष के बाद राव चन्द्रसेन ने जोधपुर का क़िला ख़ाली कर दिया और अपने सहयोगियों के साथ भाद्राजूण चले गए और यहीं से अपने राज्य मारवाड़ पर नौ वर्ष तक शासन किया। भाद्राजूण के बाद वह सिवाना आ गए।
1627 को बादशाह अकबर जियारत करने अजमेर गए वहां से वह नागौर चले गए , जहाँ सभी राजपूत राजा उससे मिलने पहुंचे। राव चन्द्रसेन भी नागौर पहुंचा, पर वह अकबर की फूट डालो नीति देखकर वापस लौट आया। उस वक्त उसका सहोदर उदयसिंह भी वहां उपस्थित था, जिसे अकबर ने जोधपुर के शासक के तौर पर मान्यता दे दी। कुछ समय बाद मुग़ल सेना ने भाद्राजूण पर आक्रमण कर दिया, पर राव चन्द्रसेन वहां से सिवाना के लिए निकल गए। सिवाना से ही राव चन्द्रसेन ने मुग़ल क्षेत्रों, अजमेर, जैतारण, जोधपुर आदि पर छापामार हमले शुरू कर दिए। राव चन्द्रसेन ने दुर्ग में रहकर रक्षात्मक युद्ध करने के बजाय पहाड़ों में जाकर छापामार युद्ध प्रणाली अपनाई। अपने कुछ विश्वास पात्र साथियों को क़िले में छोड़कर खुद पिपलोद के पहाड़ों में चले गए और वहीं से मुग़ल सेना पर आक्रमण करके उनकी रसद सामग्री आदि को लूट लेते। बादशाह अकबर ने उनके विरुद्ध कई बार बड़ी सेनाएं भेजीं, पर अपनी छापामार युद्ध नीति के बल पर राव चन्द्रसेन अपने थोड़े से सैनिको के दम पर ही मुग़ल सेना पर भारी रहे।
संवत 1632 में सिवाना पर मुग़ल सेना के आधिपत्य के बाद राव चन्द्रसेन मेवाड़, सिरोही, डूंगरपुर और बांसवाड़ा आदि स्थानों पर रहने लगे। कुछ समय के बाद वे फिर शक्ति संचय कर मारवाड़ आए और संवत 1636 श्रावण में सोजत पर अधिकार कर लिया। उसके बाद अपने जीवन के अंतिम वर्षों में राव चन्द्रसेन ने सिवाना पर भी फिर से अधिकार कर लिया था। अकबर उदयसिंह के पक्ष में था, फिर भी उदयसिंह राव चन्द्रसेन के रहते जोधपुर का राजा बनने के बावजूद भी मारवाड़ का एकछत्र शासक नहीं बन सका। अकबर ने बहुत कोशिश की कि राव चन्द्रसेन उसकी अधीनता स्वीकार कर ले, पर स्वतंत्र प्रवृत्ति वाला राव चन्द्रसेन अकबर के मुकाबले कम साधन होने के बावजूद अपने जीवन में अकबर के आगे झुके नहीं और विद्रोह जारी रखा।
11 जनवरी, 1581 (विक्रम संवत 1637 माघ सुदी सप्तमी) को मारवाड़ के महान् स्वतंत्रता सेनानी का सारण सिचियाई के पहाड़ों में 39 वर्ष की अल्पायु में उनका स्वर्गवास हो गया।

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