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हिंसा के महासागर में उनका हृदय अहिंसक हैं। युद्ध के ज्वालामुखी में उनका मन साक्षी भाव है।
यह गीता उपदेशक लिये कहा गया अमृतवचन है।
हिंसा का अर्थ प्रतिशोध, घृणा ही नहीं है। हिंसा उस समय धर्म है जब अस्तित्व का प्रश्न हो। क्योंकि धर्म और जीवन मूल्य आधार में ही विकसित होंगे। हवा में किसी पुष्प का परागकण अंकुरित नहीं हो सकता क्यों न उसकी महक वातावरण को सुशोभित करती हो। उसको भी भूमि का आधार चाहिये।
रावण के रहते राम की मर्यादा स्थापित नहीं हो सकती है। हिंसा उस समय धर्म है, जब राम विजयी होते हैं।
यदि भारत हिंसा को एक सिरे से नकार देता तो उसका अस्तित्व मिट गया होता । झेलम के तट से गंगा यमुना के दोआब तक और गोदावरी के विस्तार तक भारतीयों ने हजारों युद्ध लड़े हैं। संसार के सभी आक्रांताओं को हमनें चुनौती दी है।
भारत लड़ता रहा, लड़ रहा है, लड़ता रहेगा। उसे शांति और हिंसा दोनों स्वीकार्य है। शांति आवश्यकता है, हिंसा विवशता है। दोनों ही व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र के जीवन का अंग हैं।।
क्या होता अगर मै रुक जाती?
अगर कोई मेरी काबिलियत पे शक करता है
तो मैं क्या यूहीं झुक जाती?
अगर एहसास नहीं होता मुझे अपनी खूबियों का तो क्या कभी आगे बढ़ भी पाती?
चलो माना की तारीफों से हौसला बढ़ता है
पर अगर कोई साथ नहीं दे
तो क्या कोई अकेले अपने लिए लड़ता है?
ये सावल सिर्फ मेरा ही नहीं सबका होना चाहिए खुद से यहां तारीफ़ करने वाले तो लाखो ही मिल जाएंगे पर तलाश करो तो उसकी जो आपकी बुरिए भी बताएं सिर्फ दिखावा ही नहीं
बल्कि सच को जताए
लोग तो यह आईना बनके तुम्हारी खुबसूती दिखाएंगे पर कभी खुद से पूछना की अगर वहीं कांच टूटकर तुम्हारे पैरों में चुभा
तो क्या वो तुम्हें बचाएंगे
Madam ji की कलम से ✍️