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'राज सर आईपीएस' प्रोफेसर (डॉ.) मंजू वर्मा एवं राजीव वर्मा आईपीएस के निश्छल प्रेम एवं अल्पकालिक सुखद वैवाहिक जीवन के दुखद अंत की त्रासद गाथा है। 19 बरस की पंजाब विश्वविद्यालय की इतिहास की छात्रा मंजू चौधरी और 21 बरस के रिसर्च स्कॉलर राजीव वर्मा के मध्य प्रेम के बीज के अंकुरण, उसका परिपक्व होना, फिर विवाह नाम की संस्था में परिणत होना, फिर उसके दुखद अंत होने की दिल दहला देने वाली कहानी को पंजाब विश्वविद्यालय की सेवा निवृत्त प्रोफेसर ने जिस ईमानदारी, बेबाकी और सधी हुई लेखन शैली से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है, उसकी मिसाल संस्मरणात्मक विधा में बहुत कम मिलती है। राजीव वर्मा और मंजू चौधरी के प्यार में जितना समर्पण, बेचैनी, किसी भी परिस्थिति में एक दूसरे को पा लेने की चाहत और पवित्रता थी, उसकी प्रस्तुति इतने बेहतरीन ढंग से हो सकती है, वर्णनातीत है। एक मर्यादित प्रेम की मर्यादित भाषा में प्रस्तुति बहुत सुंदर बन पड़ी है। पाठक के रूप में एक-एक शब्द पढ़कर निहाल होता गया। घटनाओं की क्रमबद्धता का इतना सम्यक निरूपण हुआ है कि कहीं से कोई कड़ी कमजोर नहीं दिखती। एक संयमित प्यार का अपनी अद्भुत शिल्पगत प्रतिभा के माध्यम से शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान करना इस सेवानिवृत्ति प्रोफेसर की उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिभा का प्रतिदर्श तो है ही,उनके संघर्ष करने की क्षमता, जीवटता और प्यार में शत प्रतिशत ईमानदारी तथा समर्पण का परिचायक भी है। घटनाओं के शब्द चित्र इतने सलीके से उकेरे गए हैं कि पढ़ते-पढ़ते आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं। यह सोचकर मन उद्वेलित हो जाता है कि नियति किसी के साथ इतना क्रूर मजाक कैसे कर सकती है। आईपीएस जैसे प्रतिष्ठित पद पर चयनित होने के बाद प्यार की नींव इतनी मजबूत थी कि उसे वैवाहिक रूप में संस्थागत स्वरूप देने से कोई रोक न सका, परंतु लगभग 10 वर्षों का निश्छल प्रेम, त्याग, समर्पण बेजान सिस्टम के आगे लाचार हो गया। नवाबों के शहर लखनऊ में पंजाब विश्वविद्यालय के उन्मुक्त गलियारे में प्रस्फुटित प्रेम का दुखद अंत होना नियति को मंजूर था। प्रोफेसर मंजू वर्मा अपनी उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिभा की लेखनी से पाठक को इतना बांध देती हैं कि वह स्वयं स्वाभाविक रूप से उनकी प्रेम कहानी का एक हिस्सा महसूस करने लगता है। उसके अंदर यह तड़प होने लगती है कि काश राजीव वर्मा का आईपीएस में चयन न हुआ होता तो पंजाब के शैक्षिक क्षितिज पर एक सुंदर एवं संभावनाशील युगल का खुशियों भरा वैवाहिक जीवन होता। आईपीएस में चयन हो भी गया तो काश उनको उत्तर प्रदेश कैडर न मिला होता तो कहानी कुछ और होती। उत्तर प्रदेश कैडर भी मिल गया तो काश उस दिन नाश्ते के समय राजीव वर्मा थोड़ी देर और रुक गए होते तो यह दुखद घटना न होती। यह सब कुछ सोच-सोच कर पाठक इस उपन्यास के एक-एक शब्द में समा जाता है। 80 अंकों में लिखे गए इस उपन्यास का प्रारंभिक अंकों का एक-एक शब्द मन वीणा के तारों को झंकृत करता रहता है, पुलक प्रकट करता है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं कथानक की गंभीरता बढ़ती जाती है और अंत होते-होते मंजू वर्मा फूट-फूट कर रोने के लिए मजबूर कर देती हैं। यह उनकी लेखकीय सामर्थ्य है। राजीव वर्मा के दुखद अंत के बाद उन्होंने किस तरह का जीवन जिया, इस घटना की जांच किस तरह से हुई, इस बिंदु पर यह आत्मकथात्मक उपन्यास अधूरा लगता है। अधूरापन इस रूप में भी है कि लेखिका ने इस घटनाक्रम के साजिश की परतें नहीं उघारी हैं। बेहद शालीन, सुदर्शन व्यक्तित्व एवं उदीयमान एक आईपीएस अधिकारी की हत्या की घटना को तत्कालीन सरकार ने इतने हल्के में लिया होगा, यह भी विचारणीय है। यहां कुछ खटकता है। जितनी साफगोई और क्रमबद्धता से मस्ती और उल्लास से भरे जीवनवृत्त को पूरे उपन्यास में लेखिका ने प्रस्तुत किया है, अंत के कुछ पन्नों में इस दुख भरी घटना का समापन बहुत संक्षेप में कर दिया है। घटना के समय कहीं उनके ऊपर किसी दबाव या अपने दो छोटे बच्चों के आगत भविष्य की चिंता ने इस बिंदु पर मुंह खोलने से मना तो नहीं कर दिया। बेहतर होगा कि राजीव वर्मा द्वारा एक समर्पित प्रेमिका और पत्नी को इस हालत में बड़ी निष्ठुरता से छोड़कर जाने के पश्चात पैदा हुई परिस्थितियों और घटना की साजिश पर इस उपन्यास का दूसरा अंक प्रस्तुत किया जाय। जो भी हो, अपने भोगे हुए यथार्थ को बेहद ईमानदारी से प्रस्तुत करने में जिस खूबसूरत लेखन शैली का प्रयोग इतिहास की प्रोफेसर ने किया है वह उन्हें हिंदी साहित्य के गहन अध्येताओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। एक पठनीय साहित्यिक कृति भावुक पाठक और साहित्य प्रेमियों की प्रतीक्षा कर रही है....
'राज सर आईपीएस' प्रोफेसर (डॉ.) मंजू वर्मा एवं राजीव वर्मा आईपीएस के निश्छल प्रेम एवं अल्पकालिक सुखद वैवाहिक जीवन के दुखद अंत की त्रासद गाथा है। 19 बरस की पंजाब विश्वविद्यालय की इतिहास की छात्रा मंजू चौधरी और 21 बरस के रिसर्च स्कॉलर राजीव वर्मा के मध्य प्रेम के बीज के अंकुरण, उसका परिपक्व होना, फिर विवाह नाम की संस्था में परिणत होना, फिर उसके दुखद अंत होने की दिल दहला देने वाली कहानी को पंजाब विश्वविद्यालय की सेवा निवृत्त प्रोफेसर ने जिस ईमानदारी, बेबाकी और सधी हुई लेखन शैली से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है, उसकी मिसाल संस्मरणात्मक विधा में बहुत कम मिलती है। राजीव वर्मा और मंजू चौधरी के प्यार में जितना समर्पण, बेचैनी, किसी भी परिस्थिति में एक दूसरे को पा लेने की चाहत और पवित्रता थी, उसकी प्रस्तुति इतने बेहतरीन ढंग से हो सकती है, वर्णनातीत है। एक मर्यादित प्रेम की मर्यादित भाषा में प्रस्तुति बहुत सुंदर बन पड़ी है। पाठक के रूप में एक-एक शब्द पढ़कर निहाल होता गया। घटनाओं की क्रमबद्धता का इतना सम्यक निरूपण हुआ है कि कहीं से कोई कड़ी कमजोर नहीं दिखती। एक संयमित प्यार का अपनी अद्भुत शिल्पगत प्रतिभा के माध्यम से शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान करना इस सेवानिवृत्ति प्रोफेसर की उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिभा का प्रतिदर्श तो है ही,उनके संघर्ष करने की क्षमता, जीवटता और प्यार में शत प्रतिशत ईमानदारी तथा समर्पण का परिचायक भी है। घटनाओं के शब्द चित्र इतने सलीके से उकेरे गए हैं कि पढ़ते-पढ़ते आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं। यह सोचकर मन उद्वेलित हो जाता है कि नियति किसी के साथ इतना क्रूर मजाक कैसे कर सकती है। आईपीएस जैसे प्रतिष्ठित पद पर चयनित होने के बाद प्यार की नींव इतनी मजबूत थी कि उसे वैवाहिक रूप में संस्थागत स्वरूप देने से कोई रोक न सका, परंतु लगभग 10 वर्षों का निश्छल प्रेम, त्याग, समर्पण बेजान सिस्टम के आगे लाचार हो गया। नवाबों के शहर लखनऊ में पंजाब विश्वविद्यालय के उन्मुक्त गलियारे में प्रस्फुटित प्रेम का दुखद अंत होना नियति को मंजूर था। प्रोफेसर मंजू वर्मा अपनी उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिभा की लेखनी से पाठक को इतना बांध देती हैं कि वह स्वयं स्वाभाविक रूप से उनकी प्रेम कहानी का एक हिस्सा महसूस करने लगता है। उसके अंदर यह तड़प होने लगती है कि काश राजीव वर्मा का आईपीएस में चयन न हुआ होता तो पंजाब के शैक्षिक क्षितिज पर एक सुंदर एवं संभावनाशील युगल का खुशियों भरा वैवाहिक जीवन होता। आईपीएस में चयन हो भी गया तो काश उनको उत्तर प्रदेश कैडर न मिला होता तो कहानी कुछ और होती। उत्तर प्रदेश कैडर भी मिल गया तो काश उस दिन नाश्ते के समय राजीव वर्मा थोड़ी देर और रुक गए होते तो यह दुखद घटना न होती। यह सब कुछ सोच-सोच कर पाठक इस उपन्यास के एक-एक शब्द में समा जाता है। 80 अंकों में लिखे गए इस उपन्यास का प्रारंभिक अंकों का एक-एक शब्द मन वीणा के तारों को झंकृत करता रहता है, पुलक प्रकट करता है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं कथानक की गंभीरता बढ़ती जाती है और अंत होते-होते मंजू वर्मा फूट-फूट कर रोने के लिए मजबूर कर देती हैं। यह उनकी लेखकीय सामर्थ्य है। राजीव वर्मा के दुखद अंत के बाद उन्होंने किस तरह का जीवन जिया, इस घटना की जांच किस तरह से हुई, इस बिंदु पर यह आत्मकथात्मक उपन्यास अधूरा लगता है। अधूरापन इस रूप में भी है कि लेखिका ने इस घटनाक्रम के साजिश की परतें नहीं उघारी हैं। बेहद शालीन, सुदर्शन व्यक्तित्व एवं उदीयमान एक आईपीएस अधिकारी की हत्या की घटना को तत्कालीन सरकार ने इतने हल्के में लिया होगा, यह भी विचारणीय है। यहां कुछ खटकता है। जितनी साफगोई और क्रमबद्धता से मस्ती और उल्लास से भरे जीवनवृत्त को पूरे उपन्यास में लेखिका ने प्रस्तुत किया है, अंत के कुछ पन्नों में इस दुख भरी घटना का समापन बहुत संक्षेप में कर दिया है। घटना के समय कहीं उनके ऊपर किसी दबाव या अपने दो छोटे बच्चों के आगत भविष्य की चिंता ने इस बिंदु पर मुंह खोलने से मना तो नहीं कर दिया। बेहतर होगा कि राजीव वर्मा द्वारा एक समर्पित प्रेमिका और पत्नी को इस हालत में बड़ी निष्ठुरता से छोड़कर जाने के पश्चात पैदा हुई परिस्थितियों और घटना की साजिश पर इस उपन्यास का दूसरा अंक प्रस्तुत किया जाय। जो भी हो, अपने भोगे हुए यथार्थ को बेहद ईमानदारी से प्रस्तुत करने में जिस खूबसूरत लेखन शैली का प्रयोग इतिहास की प्रोफेसर ने किया है वह उन्हें हिंदी साहित्य के गहन अध्येताओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। एक पठनीय साहित्यिक कृति भावुक पाठक और साहित्य प्रेमियों की प्रतीक्षा कर रही है....
'राज सर आईपीएस' प्रोफेसर (डॉ.) मंजू वर्मा एवं राजीव वर्मा आईपीएस के निश्छल प्रेम एवं अल्पकालिक सुखद वैवाहिक जीवन के दुखद अंत की त्रासद गाथा है। 19 बरस की पंजाब विश्वविद्यालय की इतिहास की छात्रा मंजू चौधरी और 21 बरस के रिसर्च स्कॉलर राजीव वर्मा के मध्य प्रेम के बीज के अंकुरण, उसका परिपक्व होना, फिर विवाह नाम की संस्था में परिणत होना, फिर उसके दुखद अंत होने की दिल दहला देने वाली कहानी को पंजाब विश्वविद्यालय की सेवा निवृत्त प्रोफेसर ने जिस ईमानदारी, बेबाकी और सधी हुई लेखन शैली से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है, उसकी मिसाल संस्मरणात्मक विधा में बहुत कम मिलती है। राजीव वर्मा और मंजू चौधरी के प्यार में जितना समर्पण, बेचैनी, किसी भी परिस्थिति में एक दूसरे को पा लेने की चाहत और पवित्रता थी, उसकी प्रस्तुति इतने बेहतरीन ढंग से हो सकती है, वर्णनातीत है। एक मर्यादित प्रेम की मर्यादित भाषा में प्रस्तुति बहुत सुंदर बन पड़ी है। पाठक के रूप में एक-एक शब्द पढ़कर निहाल होता गया। घटनाओं की क्रमबद्धता का इतना सम्यक निरूपण हुआ है कि कहीं से कोई कड़ी कमजोर नहीं दिखती। एक संयमित प्यार का अपनी अद्भुत शिल्पगत प्रतिभा के माध्यम से शाब्दिक अभिव्यक्ति प्रदान करना इस सेवानिवृत्ति प्रोफेसर की उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिभा का प्रतिदर्श तो है ही,उनके संघर्ष करने की क्षमता, जीवटता और प्यार में शत प्रतिशत ईमानदारी तथा समर्पण का परिचायक भी है। घटनाओं के शब्द चित्र इतने सलीके से उकेरे गए हैं कि पढ़ते-पढ़ते आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं। यह सोचकर मन उद्वेलित हो जाता है कि नियति किसी के साथ इतना क्रूर मजाक कैसे कर सकती है। आईपीएस जैसे प्रतिष्ठित पद पर चयनित होने के बाद प्यार की नींव इतनी मजबूत थी कि उसे वैवाहिक रूप में संस्थागत स्वरूप देने से कोई रोक न सका, परंतु लगभग 10 वर्षों का निश्छल प्रेम, त्याग, समर्पण बेजान सिस्टम के आगे लाचार हो गया। नवाबों के शहर लखनऊ में पंजाब विश्वविद्यालय के उन्मुक्त गलियारे में प्रस्फुटित प्रेम का दुखद अंत होना नियति को मंजूर था। प्रोफेसर मंजू वर्मा अपनी उत्कृष्ट साहित्यिक प्रतिभा की लेखनी से पाठक को इतना बांध देती हैं कि वह स्वयं स्वाभाविक रूप से उनकी प्रेम कहानी का एक हिस्सा महसूस करने लगता है। उसके अंदर यह तड़प होने लगती है कि काश राजीव वर्मा का आईपीएस में चयन न हुआ होता तो पंजाब के शैक्षिक क्षितिज पर एक सुंदर एवं संभावनाशील युगल का खुशियों भरा वैवाहिक जीवन होता। आईपीएस में चयन हो भी गया तो काश उनको उत्तर प्रदेश कैडर न मिला होता तो कहानी कुछ और होती। उत्तर प्रदेश कैडर भी मिल गया तो काश उस दिन नाश्ते के समय राजीव वर्मा थोड़ी देर और रुक गए होते तो यह दुखद घटना न होती। यह सब कुछ सोच-सोच कर पाठक इस उपन्यास के एक-एक शब्द में समा जाता है। 80 अंकों में लिखे गए इस उपन्यास का प्रारंभिक अंकों का एक-एक शब्द मन वीणा के तारों को झंकृत करता रहता है, पुलक प्रकट करता है। जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं कथानक की गंभीरता बढ़ती जाती है और अंत होते-होते मंजू वर्मा फूट-फूट कर रोने के लिए मजबूर कर देती हैं। यह उनकी लेखकीय सामर्थ्य है। राजीव वर्मा के दुखद अंत के बाद उन्होंने किस तरह का जीवन जिया, इस घटना की जांच किस तरह से हुई, इस बिंदु पर यह आत्मकथात्मक उपन्यास अधूरा लगता है। अधूरापन इस रूप में भी है कि लेखिका ने इस घटनाक्रम के साजिश की परतें नहीं उघारी हैं। बेहद शालीन, सुदर्शन व्यक्तित्व एवं उदीयमान एक आईपीएस अधिकारी की हत्या की घटना को तत्कालीन सरकार ने इतने हल्के में लिया होगा, यह भी विचारणीय है। यहां कुछ खटकता है। जितनी साफगोई और क्रमबद्धता से मस्ती और उल्लास से भरे जीवनवृत्त को पूरे उपन्यास में लेखिका ने प्रस्तुत किया है, अंत के कुछ पन्नों में इस दुख भरी घटना का समापन बहुत संक्षेप में कर दिया है। घटना के समय कहीं उनके ऊपर किसी दबाव या अपने दो छोटे बच्चों के आगत भविष्य की चिंता ने इस बिंदु पर मुंह खोलने से मना तो नहीं कर दिया। बेहतर होगा कि राजीव वर्मा द्वारा एक समर्पित प्रेमिका और पत्नी को इस हालत में बड़ी निष्ठुरता से छोड़कर जाने के पश्चात पैदा हुई परिस्थितियों और घटना की साजिश पर इस उपन्यास का दूसरा अंक प्रस्तुत किया जाय। जो भी हो, अपने भोगे हुए यथार्थ को बेहद ईमानदारी से प्रस्तुत करने में जिस खूबसूरत लेखन शैली का प्रयोग इतिहास की प्रोफेसर ने किया है वह उन्हें हिंदी साहित्य के गहन अध्येताओं की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। एक पठनीय साहित्यिक कृति भावुक पाठक और साहित्य प्रेमियों की प्रतीक्षा कर रही है....