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तुलसीदास दुबे अकबर के दौर में लिख रहे थे। बाबर के बाद। लेकिन उनका पंगा हिंदू मेहनतकश उत्पादक जातियों से ही था। मुग़लों के बारे में उन्होंने एक शब्द नहीं लिखा। कवितावली (गीता प्रेस) में तो उन्होंने लिखा कि वे माँग कर खाएँगे और मस्जिद में सो लेंगे। सारी खुन्नस ओबीसी से थी उनकी।

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