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महान चित्रकार राजा रवि वर्मा ने अपनी रचनाओं से भारतीय कला को नई ऊंचाइयों तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय चित्रकला को दुनिया तक पहुंचाने वाले यह पहले चित्रकार थे जिन्होंने हिंदू देवी-देवताओं के चित्र बनाकर उन्हें आम इंसान जैसा दिखाया। आज हम फोटो, पोस्टर, कैलेंडर आदि में सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, राधा- कृष्ण की जो तस्वीरें देखते हैं वे ज़्यादातर राजा रवि वर्मा की कल्पनाशक्ति की ही उपज हैं।
लेकिन क्या आप जानते है कि उनकी इन पेंटिंग का देश की पहली फ़िल्म बनाने में भी बड़ा योगदान था। बात 1894 की है जब रवि वर्मा अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे। देश में पहली बार, शायद एक चित्रकार की कला उसके स्टूडियो की चार दीवारों और उसके पारखी लोगों के घेरे के भीतर सीमित नहीं थी। बल्कि वह देश के अन्य लोगों तक पहुंच रही थी। उन्होंने अपनी कला को अधिक सर्वव्यापी बनाने का फैसला किया और घाटकोपर में उन्होंने एक प्रेस की स्थापना की जो उनके चित्रों की छपाई करती थी। उस समय, उनका प्रेस भारत में सबसे आधुनिक माना जाता था। इसी प्रेस में एक युवा फोटोग्राफर काम करता था जिसका नाम था धुंडीराज गोविंद फाल्के। जो बाद में रवि वर्मा का भरोसेमंद कर्मचारी बन गया।
कुछ समय बाद प्लेग महामारी के कारण उनकी प्रेस कंपनी कर्ज़ में डूब गई, और उन्होंने 1901 में इसे एक जर्मन तकनीशियन फ्रिट्ज श्लेचर को बेच दिया। रवि वर्मा फाल्के के फ़िल्म बनाने के सपने को अच्छी तरह जानते थे इसलिये प्रेस बेचने से जो धन मिला था उसमें से कुछ हिस्सा उन्होंने फाल्के को दिया। वह इसके बाद भी उनकी आर्थिक मदद करते रहे। आखिरकार उनके समर्थन से 1913 में भारत की पहली फ़िल्म 'राजा हरिश्चन्द्र' बनकर रिलीज़ के लिए और भारतीय सिनेमा की तस्वीर बदलने को तैयार थी।
उनकी यह फ़िल्म राजा रवि वर्मा की की पेंटिंग्स से बहुत अधिक प्रभवित रहीं। लाइटिंग से लेकर सेट की सजावट तक, फाल्के की फिल्मों में पौराणिक पात्र अक्सर वर्मा के चित्रों से मिलते जुलते थे। राजा हरिश्चंद्र की शुरुआत का जो सीन था वह रवि वर्मा की पेंटिंग से प्रभावित था जिसमें एक राजा को उसकी पत्नी और बेटे के साथ दर्शाया गया था। फाल्के की आगे की कई फिल्मों में उनकी पेंटिंग का प्रभाव नज़र आता रहा।

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